Saturday 19 July 2014

समाज में पुलिस की भूमिका

समाज में पुलिस  की भूमिका
इतिहास से
 ब्रिटिश सरकार नेअपनी हुकूमत की जड़ों को मजबूत करने के लिए तथा भारतीय भावनाओं का दमन करने के लिए जिस पुलिस बल का गठन किया था,वह अत्याचार और आतंक का पर्यायथा । दारोगा अपराधियों के बजाय सज्जनों के लिए आतंक थे। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान पुलिस स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ भी वही व्यवहार करती थी, जो चोरों और डकैतों के साथ किया जाता है। भारत में ब्रिटिश प्रशासन तीन खम्भों पर टिका हुआ था और वे थे नागरिक सेवा (सिविल सर्विस) सेना और पुलिस
 उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक पुलिसपर राष्ट्रवादिता का खौफ गहराई से छाया हुआ था। इसका परिणाम यह हुआकि सिपाहियों और पुलिस अधिकारियों को अधिक से अधिक हथियार दिए गए। पुलिस बल की ताकत भी बढ़ाई गई। प्रशिक्षण को अधिक कारगर बनाया गया और ब्रिटिशपरस्ती का भाव पुलिस के लोगों में भरने का पूरा प्रयत्न किया गया। ब्रिटिश राज्य को यह जानकारी थी कि पुलिस प्रशासन पिछड़ा हुआ था। भयंकर रूप से दोषपूर्ण था और उनकी ईमानदारी तथा बुद्धि का स्तर भी दूसरी सेवाओं की अपेक्षा कम था। संसद की एक समिति ने १८१३ की अपनी रिर्पोट में बताया है कि पुलिस ने शांतिप्रिय निवासियों को उसी तरह लूटा मारा जैसा डकैत करते थे, जबकि डकैतों को दबाने के लिए उसका गठन किया गया था।
स्वतंत्रता के बाद आम सोच और मानसिकता में बहुत बड़ा परिवर्तन आया। लेकिन पुलिस में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया। पुलिस बदलते समाज के साथ नहीं बदली। परिणामस्वरूप जिस पुलिस-समाज संबंध को स्वतंत्रता के बाद बदल जाना चाहिए था वह नहीं बदला। एक तरफ पुलिस बल का खंडित मनोबल, दूसरी और अपराधियों की संबर्धित क्षमता और तीसरी और राजनीति का अपराधीकरण फिर व्यवस्था में नए सुधार नई दृष्टि और नई संस्कृति का अभाव पुलिस को वह सार्थक दिशाबोध नहीं दे पाया जिसकी जरूरत मानवीय अधिकारों की दृष्टि से और पुलिस की क्षमता की दृष्टि से थी।
१९४७ से पहले लोग पुलिस को विदेशी प्रशासन के एक अवयव के रूप में देखने को विवश थे। इस दृष्टिकोण को बदलकर सकारात्मक होना चाहिए था जिसमें पुलिस को जनता के प्रशासनिक नेता और समाज में शांति की रक्षक के रूप में देखा जाता। दुर्भाग्यवश यह नहीं हुआ।
देश की आन्तरिक शांति, सुरक्षा और प्रगति के लिए सिपाही की भूमिका निर्विवाद है। वह कानून का रक्षक होता है। यदि वह अपने कर्तव्यों पर डटा रहे तो देश में चारों ओर सुख, शांति और समृद्धि का बोलबाला रहेगा।
जिस प्रकार सैनिक विदेशी शत्रुओं से देश की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्र-विरोधी तत्वों से पुलिस हमारी रक्षा करती है। प्रत्येक राष्ट्र के अपने कानून होते हैं। देश के नागरिक उन कानूनों का पालन करते हैं। परन्तु कुछ लोग देश के कानून की अवहेलना कर राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहते हैं, पुलिस विभिन्न अपराधों में उनका चालान कर न्यायालय में प्रस्तुत करती है।
गृहरक्षा विभाग के अन्तर्गत आने वाला विभाग होने से देश की कानून व्यवस्था को संभालने का काम पुलिस के हाथ ही होता है। आपराधिक गतिविधियों को रोकने, अपराधियों को पकडऩे, अपराधियों के द्वारा किये जाने वाले अपराधों की खोजबीन करने, देश की आंतरिक सम्पत्ति की रक्षा करने और जो अपराधी हैं और उनका अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य जुटाना ही पुलिस का कार्य है। अपराधी घोषित करने के बाद पुलिस संबन्धित व्यक्ति को अदालत को सौंपती है। यह न्यायव्यवस्था की एक महत्वपूर्ण कडी़ के रूप में काम करती है, लेकिन किसी अपराधी को सजा देना पुलिस का काम नही होता है,सजा देने के लिये अदालतों को पुलिस द्वारा अपराधी के खिलाफ जुटाये गये पुख्ता सबूत और जानकारी पर निर्भर रहना होता है साथ ही इसी जानकारी और सबूतों के आधार पर ही किसी व्यक्ति को अपराधी घोषित किया जा सकता है।
अपराधनिरोध के अंतर्गत न केवल व्यक्ति एवं संपत्ति संबंधी अपराधों का निरोध होता है वरन् मादक द्रव्यों का तथा गाँजा, भाँग, अफीम, कोकीन के तस्कर व्यापार का निरोध और वेश्यावृत्ति संबंधी अधिनियम को लागू कराने की कार्यवाहियाँ भी सन्निहित हैं। यातायात संबंधी व्यवस्था स्थापन में ट्रेफिक पुलिस द्वारा नगरों में यातायात का सुनियंत्रण एवं मोटर संबंधी अधिनियमों का परिपालन कराने की कार्रवाई की जाती है। राजनीतिक सूचनाओं के एकत्रीकरण का कार्य देश के भीतर एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुप्तचरों द्वारा होता है। इसके निमित्त देश के भीतर विभिन्न समुदायों एवं वर्गों की राजनीतिक प्रवृत्तियों, गतिविधि एवं नीतियों से संबंधित सूचनाएँ एकत्र की जाती हैं। प्रत्येक युग में राजनीतिक षड्यंत्र एवं हत्याकांड होते रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों में विश्व में इस संबंध में अनेक घटनाएँ होने के कारण अपने देश के एवं बाहर के महत्ववाले व्यक्तियों की सुरक्षा का आयोजन प्रत्येक राष्ट्र की पुलिस द्वारा किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मित्र अथवा शत्रु राष्ट्रों की नीतियों के संबंध में सूचनाएँ भी एकत्र की जाती हैं।
गांवों से लेकर महानगरों तक में पुलिस के तानाशाही रवैए से लोग दो-चार हो रहे हैं। पुलिस सुधार की तमाम बातें अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुई हैं। बहरहाल, एक अहम सवाल यह है कि लोगों की रक्षा का भार वहन करने वाली पुलिस भक्षक की भूमिका में आखिर क्यों नजर आती है? बुनियादी तौर पर देखा जाए तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह अग्रेजों के जमाने में बना पुलिस अधिनियम है। 1861 में बने पुलिस अधिनियम के मुताबिक ही देश के अधिकांश राज्यों की पुलिस आज भी काम कर रही है। दरअसल, इसे समझा जाना जरूरी है कि 1861 में बने पुलिस अधिनियम की भूमिका पुलिस के चरित्र को आपराधिक बनाने में कितनी ज्यादा है। भारत में आजादी के पहली लड़ाई के तौर पर 1857 के विद्रोह को याद किया जाता है। जब विद्रोह हो गया और किसी तरह से अंग्रेजों ने इस पर काबू पा लिया तो यह बात उठी की भविष्य में ऐसे विद्रोह नहीं हो पाएं, इसके लिए आवश्यक बंदोबस्त किए जाएं। इसी के परिणामस्वरूप 1861 का पुलिस अधिनियम बना। इसके जरिए अंग्रेजों की यह कोशिश थी कि सरकार के खिलाफ कहीं से भी कोई विरोध का स्वर नहीं उठ पाए और सरकार के हर सही-गलत फरमान पर अमल किया जा सके। पुलिस अग्रेजों की इच्छा के अनुरुप परिणाम भी देती रही। पर इन सबके बावजूद भारत 1947 में आजाद हो गया। कहने के लिए देश का अपना संविधान भी बन गया। लेकिन नियम-कानून अंग्रेजों के जमाने वाले ही रहे।
आजाद भारत के इतने साल गुजरने के बावजूद भी व्यवस्था जस की तस बनी हुई है। पुलिस का खौफनाक रवैया भी यथावत है। हालांकि, कुछ राज्यों ने नए अधिनियम के तहत पुलिस को संचालित करने की कोशिश की है। लेकिन सच यह है कि नए और पुराने अधिनियम में कोई खास फर्क नहीं है। महाराष्ट और गुजरात में 1951 का बंबई पुलिस अधिनियम लागू है। कर्नाटक में 1963 में और दिल्ली में 1978 में नया पुलिस अधिनियम बनाकर पुलिस को नियंत्रित करने की कोशिश की गई। पर नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही निकला है। इन राज्यों की पुलिस का चरित्र भी दूसरे राज्यों की पुलिस से बहुत अलग नहीं है। इन राज्यों की पुलिस भी मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं करती है और नया अधिनियम इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद पुलिस सुधार के खातिर राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन 1979 में किया गया था। इस आयोग ने रिपोर्ट देने की शुरुआत 1981 से की। इसने आठ रपटें दीं। इसके बाद 1998 में बनी रेबेरो कमेटी ने भी पुलिस सुधार से जुड़ी अपनी रपट सरकार को दे दी।
पुलिस के बुरे बर्ताव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आम लोग पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने में भी हिचकिचाते हैं। आजकल हालत तो यह हो गई लोग पुलिस के पास अपनी शिकायत लेकर जाने की बजाए मीडिया के पास पहुंच रहे हैं। मीडिया ट्रायल के बढ़ते चलने के लिए कहीं न कहीं पुलिस भी जिम्मेवार है। पिछले कुछ सालों से ऐसा देखने में आया है कि पुलिस का प्रयोग समय-समय पर सरकारें अपने विरोध को कुचलने के लिए भी करती रही हैं। धरना-प्रदर्शन के दौरान लाठीचार्ज हो जाना बेहद आम हो गया है। ऐसा करके एक तरह से लोगों के हाथ से शांतिपूर्ण विरोध करने का औजार छिना जा रहा है और परोक्ष तौर पर ही सही उन्हें हिंसात्मक विरोध करने के रास्ते पर आगे बढ़ाया जा रहा है।
देश की पुलिस व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ें भी बेहद गहरी हैं। हर छोटे-बड़े काम के लिए पुलिस द्वारा पैसा वसूला जाना आम बात है। रेहड़ी पटरी वालों से लेकर रेलगाडिय़ों में सामान बेचने वाले वेंडरों तक से वसूली करने में पुलिस बाज नहीं आती है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि जिस देश की पुलिस का चरित्र ऐसा हो तो वहां से भय और असुरक्षा का माहौल आखिर कैसे दूर हो सकता है? आखिर पुलिस को मानवीय चेहरा और चरित्र कैसे प्रदान किया जाए? पुलिस का गठन रक्षा करने के लिए हुआ है न कि अराजकता को हवा देने या आम लोगों के साथ तानाशाह जैसा बरताव करने के लिए। पुलिस के व्यवहार में सुधार करने के लिए सबसे पहले तो अंग्रेजों के जमाने के पुलिस अधिनियम में बदलाव की दरकार है। क्योंकि गाइडलाइन को बदले बगैर व्यवस्था को बदलना असंभव सरीखा है। जिस जमाने में यह पुलिस अधिनियम बना था उस वक्त की चुनौतियां आज से काफी अलग थीं। इसलिए मौजूदा दौर की मुश्किलों से निपटने के लिए नए नियमों और कानूनों की जरूरत है। पुलिस की भूमिका और जिम्मेदारियों में भी काफी बदलाव आ गया है। पुलिस के राजनीतिक प्रयोग पर भी लगाम लगाया जाना बेहद जरूरी है। सत्ताधीश अपनी सियासी रोटी सेंकने के फेर में कई बार रक्षक को भक्षक की भूमिका में तब्दील कर देते हैं।
 इन सबसे ज्यादा जरूरी है पुलिस की मानसिकता में बदलाव लाना। इस व्यवस्था में काम करने वालों के मन में यह बात बैठानी होगी कि उनका काम लोगों को डराना-धमकाना नहीं बल्कि इसके खिलाफ आवाज उठाने में सक्षम बनाना है और आम जन को सुरक्षा एक अहसास कराना है। ऐसा किए बगैर लोगों का खाकी वर्दी वालों पर विश्वास कायम होना काफी मुश्किल है। यह निश्चित तौर पर पूरी व्यवस्था की सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है।
पुलिस सुधार क्यों?
पुलिस सुधार देश में सुशासन में योगदान देगा। जनता का पुलिस से निरंतर वास्ता पड़ता है। कोई भी समस्या कानून-व्यवस्था से जुड़ी हो सकती है और अंतत: जिम्मेदारी पुलिस के कंधों पर आ सकती है। राजस्थान में हाल ही में हुआ आरक्षण आंदोलन देख लीजिए। आतंकवाद और उग्रवाद के अलावा अन्य समस्याओं में भी पुलिस का दखल होता ही है। दिन-प्रतिदिन समस्याओं का स्वरूप गहन होता जा रहा है। इसलिए हमें एक ऐसे पुलिस बल की जरूरत है जो देश के कानूनों के प्रति जवाबदेह हो न कि नेताओं से दिशानिर्देश प्राप्त करे। वह संविधान के अनुसार काम करे। पुलिस सुधार से लोगों के मानवाधिकारों की भी बेहतर तरीके से रक्षा हो पाएगी। लोगों को यह समझना होगा कि अगर हमें इस देश में लोकतंत्र, जिसके प्रति हम बहुत गर्व करते हैं, की रक्षा करना चाहते हैं, उसे फलता-फूलता देखना चाहते हैं तो इसके लिए निष्पक्ष और जवाबदेह पुलिसबल बहुत जरूरी है। अन्यथा लोकतांत्रिक ढांचे को अपराधी और माफिया तत्वों से खतरा पैदा हो जाएगा। आर्थिक प्रगति के लिए भी बेहतर पुलिस बल जरूरी है जो हमारे आर्थिक केन्द्रों के आस-पास कानून-व्यवस्था बनाए रखे।
कई कोशिशों के बावजूद पुलिस सुधार का अभी इंतजार है
वर्ष 1977 में धर्मवीर की अगुवाई में एक सरकारी संगठन राष्ट्रीय पुलिस आयोग (एनपीसी) का गठन किया गया, जिसका काम भारत में पुलिस व्यवस्था की कार्य प्रणालियों की समीक्षा करना था. साथ ही इस आयोग ने नागरिकों के प्रति पुलिस व्यवस्था को जवाबदेह बनाने के लिए भी कई सुझाव दिए. एनपीसी ने पुलिस सुधार के मामले में आठ विस्तृत रिपोर्ट पेश कीं और पुलिस कल्याण, प्रशिक्षण एवं सार्वजनिक संबंधों के मामले में भी कई सफ़िारिशें कीं. हालांकि जब 1981 में पूर्ववर्ती सरकार सत्ता में लौटी तो उसने राष्ट्रीय पुलिस आयोग को भंग कर दिया और एनपीसी की सभी रिपोर्टों को भी ख़ारिज कर दिया. इन रिपोर्टों की सफ़िारिशें धूल फांकने लगीं और यह अफ़वाह फैली कि एनपीसी की सभी रिपोर्टों को सार्वजनिक लाइब्रेरी से हटा दिया गया. सर्फ़ि आयोग के कुछ अधिकारियों के पास ही इन रिपोर्टों की महज़ चंद प्रतियां थीं. अगले बीस सालों तक यह रिपोर्ट धूल फांकती रही, पुलिस ग़ैर जि़म्मेदारी से अपना काम करती रही और आम आदमी भी इसके प्रति अनभिज्ञबना रहा. 1990 के मध्य में जब राजनीतिक समीकरण बदला तो उम्मीद की एक किरण नजऱ आई और कुछ उत्साही लोग इन सुधारों की कोशिशों के लिए एक मंच पर आए. 1996 में एन के सिंह एवं प्रकाश सिंह पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत हुए और दोनों इसी उद्देश्य के लिए ग़ैर सरकारी संगठन के ज़रिए एक मंच पर आए. इनके साथ कुछ अन्य लोगों ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें एक नए पुलिस अधिनियम की ज़रूरत की बात कही गई.
यह भी गलत है कि अपने यहां कानूनों की कमी है। कानून है और सख्त है मगर उस पर अमल की मशीनरी ऐसी लचर है कि कानून का होना बेमानी है। उससे खौफ नहीं बनता है। सचमुच  भारत में समाज से बड़ा संकट अपनी व्यवस्था और पुलिस का है। दुनिया के सभ्य समाजों में पुलिस सभ्य है जबकि अपने यहां पुलिस बीमार है। नहीं तो बच्ची से बलात्कार की रिपोर्ट पर क्या थानेदार यह कहता कि लो 2000 रुपए और जाओं या एक एसीपी में यह हिम्मत होती जो विरोध जता रही लडकी के मुंह पर थप्पड़  मारता। ध्यान रहे समाज व्यवस्था से नहीं बनता मगर व्यवस्था से पुलिस बनती है। इसलिए पुलिस को सुधार नहीं सकना, उसे सभ्य नहीं बना सकना भारत राष्ट्र-राज्य की सबसे बड़ी असफलता है।
पुलिस सुधार की बातें अर्से से हो रही हैं। उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रमुख रहे प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधारों को लेकर बाकायदा एक याचिका दायर की हुई है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कुछ निर्देश भी जारी किए थे। इस बात के काफी अरसा गुजर जाने के बाद पिछले दिनों जब पंजाब के तरनतारन में एक महिला की पुलिस द्वारा पिटाई और पटना में आंदोलन कर रही शिक्षकों पर पुलिसिया लाठीचार्ज के वीडियो फुटेज टीवी पर दिखाए गए तब सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर सभी राज्यों से पूछा कि पुलिस सुधारों पर उसके दिए निर्देशों पर कितना अमल हुआ है?
लंबे अरसे से पुलिस को बेहतर प्रशिक्षण देने, उन्हें संवेदनशील बनाने, शिक्षा का स्तर बढ़ाने, नैतिकता की शिक्षा देने, पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ाने जैसे अनगिनत सुझावों की चर्चा होती है, लेकिन इनमें से किसी पर अमल नहीं होता है।
असल में पुलिस अब भी अपने को वैसा ही समझती है, जैसा अंग्रेज उसे बना गए हैं। भारत में अपराध-न्याय प्रणाली की तमाम धाराएं 1860 में बनी हैं। उस समय अंग्रेजों ने पुलिस को एक गुलाम मुल्क के नागरिकों को डंडे की ताकत से काबू में रखने के लिए बनाया था। आजादी और लोकतंत्र के 65 साल बाद भी पुलिस वैसा ही बरताव करती है। वह खाकी वर्दी से खौफ पैदा करती है।
पुलिस सुधार पर केन्द्र और राज्यों को उच्चतम न्यायालय का नोटिस
नई दिल्ली उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में पंजाब में एक लड़की की पिटाई और पटना में शिक्षकों पर पुलिस लाठी चार्ज की घटना पर कड़ा रुख अपनाते हुए पुलिस सुधार के लिए दिए गए निर्देशों पर अमल के बारे में सोमवार को केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से जवाब तलब किया।  न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इन घटनाओं के लिए पंजाब और बिहार सरकार को आड़े हाथ लेते हुए उन्हें निहत्थे लोगों के साथ कथित बर्बर रवैया अपनाने के मामले में सात दिन के भीतर हलफनामा दाखिल करने का भी निर्देश दिया।  न्यायाधीशों ने अपने आदेश में कहा, ''गृह मंत्रालय के सचिव के माध्यम से केन्द्र सरकार के साथ ही सभी राज्य सरकारों, केन्द्र शासित प्रदेशों, मुख्य सचिवों, गृह सचिवों और सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और केन्द्र शासित प्रदेशों में पुलिस आयोगों पुलिस सुधार के बारे में प्रकाश सिंह प्रकरण में दिए गए निर्देशों पर अमल के संबंध में नोटिस जारी किया जाए।ÓÓ  न्यायालय ने पंजाब के तरणतारण में लड़की की पुलिस द्वारा कथित पिटाई और बिहार की राजधानी पटना में संविदा शिक्षकों पर लाठी चार्ज के बारे में प्रकाशित मीडिया खबरों का स्वत: ही संज्ञान लेते हुए पिछले सप्ताह ही इन राज्य सरकारों से जवाब मांगा था।  तरणतारण की घटना में चार मार्च को एक ट्रक ड्राइवर और उसके साथियों द्वारा परेशान किए जाने और अभद्र व्यवहार करने की शिकायत करने वाली लड़की की ही पुलिस के जवानों ने कथित रूप से पिटाई कर दी थी।  दूसरी घटना में 5 मार्च को बिहार पुलिस ने पटना में विधानसभा के बाहर नौकरी में नियमित करने और समान वेतन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे संविदा शिक्षकों पर लाठी चार्ज करने के बाद आंसू गैस के गोले दागे थे।
यहां यह ध्यान दिलाना महत्वपूर्ण है कि संविधान में पुलिस व्यवस्था की जिम्मेदारी राय सरकारों को दी गई है, लेकिन 1861 का पुलिस अधिनियम अभी भी केंद्र सरकार के अधीन है। पुलिस व्यवस्था को आधुनिक बनाने के लिए राय सरकारों ने थोड़ी-बहुत कोशिशें की हैं।
नई दिल्ली 7 केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सोमवार को पुलिस सुधार की वकालत करते हुए कहा कि पुलिसकर्मियों को कामकाज के लिए बेहतर माहौल मुहैया कराने की आवश्यकता है। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट पर चर्चा के लिए आयोजित मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए शिंदे ने कहा, 'सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस के सामने आज देश में कई चुनौतियां हैं। बढ़ते सामाजिक दायरे और जन आकांक्षाओं के कारण पुलिस पर दबाव और बढ़ेगा, तथा पुलिस की कार्यप्रणाली में जवाबदेही तथा पारदर्शिता पर विशेष जोर होगा।Ó विज्ञान भवन में आयोजित सम्मेलन में शिंदे ने यह भी कहा कि पुलिस पर बेहतर जांच और अपराध की रोकथाम के साथ-साथ अन्य कई तरह के दबाव होते हैं। इसलिए उन्हें कामकाज का बेहतर माहौल मुहैया कराए जाने की आवश्यकता है। शिंदे ने कहा, 'इन स्थितियों में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि एकसाथ मिलकर हम मौजूदा स्थिति तथा विचाराधीन सिफारिशों का जायजा लें।Ó
हाल ही में सीवीसी ने उसी बात को एक बार फिर दोहराया कि डेढ़ सौ साल पुराने जिस कानून से पुलिस संचालित हो रही है, उसने पुलिस को कानून लागू करने वाली एजेंसी की जगह सरकार की एजेंट बनाकर रख दिया है.सतर्कता आयुक्त ने कहा कि पुलिस राज्य के अधीनस्थ सबसे पहला व अहम साधन है, जिसका गठन विशेष मकसद के लिए किया गया. इसे कानून का शासन लागू करना होता है, लेकिन देश में पुलिस व्यवस्था का सहारा आज भी 1861 में निर्मित पुलिस कानून है.
हाल ही में महिलाओं को सुरक्षा का अहसास हेतु विभिन्न कानूनों में बदलाव के उपाय सुझाने के लिए गठित जस्टिस वर्मा समिति ने जो तमाम सिफारिशें कीं, उनमें एक सिफारिश पुलिस सुधारों संबंधी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर अमल की भी थी; लेकिन इन सिफारिशों के आधार पर जब सरकार एक अध्यादेश ले आई, तो उसमें इसका कहीं कोई जिक्र नहीं था. अपराध से निबटने और कानून के क्रियान्वयन के लिए जरूरी है कि इन्हें लागू करने वालों में संवेदनशीलता हो।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून और राज्यव्यवस्था के सफल संचालन में पुलिस प्रशासन की सफल भूमिका होती है, मगर यह तभी सभव है जब पुलिस महकमे का सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों को भली-भांति समझकर उनका ढंग से निर्हवन करें।
लगता ही नहीं की पुलिस लोकतन्त्र की भावनाओं का सम्मान करती है। अंगे्रजों ने भारतीय क्रांतिकारियों पर नियंत्रण के लिए जो पुलिस तंत्र बनाया था आज भी पुलिस उसी पर चल रही है।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने पुलिस बलों में व्यापक सुधार की आज वकालत की। उन्होंने कहा कि 150 साल पुराना अधिनियम पुलिस को कानून लागू करने वाली एजेंसी के बजाय सरकार का एजेंट बनाता है। सतर्कता आयुक्त ने कहा कि राज्य के प्रमुख अंग के तौर पर पुलिस को विधि के शासन को लागू करना होता है, लेकिन १८६१ का पुलिस अधिनियम जो अब भी देश में पुलिस की रीढ़ है वह पुलिस को कानून के एजेंट की बजाय सरकार का एजेंट बनाता है।



पुलिस का कार्य बड़ा कठिन है। राजनेताओं की विभिन्न रैलियों के दौरान सुरक्षा और यातायात की व्यवस्था बनाये रखना, जलूसों को शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना, हड़ताल, धरनों और बंद के दौरान असामाजिक तत्वों से राष्ट्र की सम्पत्ति की रक्षा करना, राजनेताओं की व्यक्तिगत सुरक्षा करना, चोर डकैतों और लुटेरों से आम नागरिक की रक्षा करना पुलिस का दायित्व है। पुलिस कर्मचारी चौबीस घंटे खतरों से जूझते हैं। चोर डकैतों से मुठभेड़ के दौरान घायल हो जाते हैं। भीड़ के द्वारा पथराव की स्थिति में चोट खाते हैं। सर्दी, गर्मी, बरसात में ड्यूटी देनी पड़ती है। विभिन्न प्रकार के अपराधियों को पकडऩा और न्यायालय में प्रस्तुत करना पुलिस का कार्य है।

पुलिस की भूमिका की समझ विभिन्न वर्गों, समूहों और सामाजिक स्तर के साथ बदल जाती है। विद्यार्थी, श्रमिक, पत्रकार, वकील, जन-प्रतिनिधि, प्रतिष्ठित व्यक्ति-सभी पुलिस से अपनी सोच के अनुरूप अपेक्षाएं रखते हैं। इसके परिणामस्वरूप पुलिस को अपनी भूमिका-निर्वाह में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

देश में जहां कहीं भी अराजक स्थिति पैदा होती है, धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण करता है वहां देश की कानून व्यवस्था का उल्लंघन होता है। ऐसी स्थिति में सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे तत्काल कानून व्यवस्था को बहाल करने में सहायता करें और कानून तोडऩे वालों को पकड़कर उन्हें दंडित करने में सहयोग करें। सिपाही का कर्तव्य है कि वह बिना भेद भाव के हर कर्तव्यनिष्ठ नागरिक की सहायता और सुरक्षा करे। पुलिस व्यवस्था को आज नई दिशा नई सोच और नए आयाम की आवश्यकता है। समय की मांग है कि, हमारी पुलिस नागरिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों के प्रति जागरूक हो और समाज के सताए हुए तथा दबे कुचले लोगों के प्रति संवेदनशील बने।


अन्य सरकारी कर्मचारियों की तुलना में पुलिस का कार्य विशेष महत्वपूर्ण होता है। समाज में कानून और व्यवस्था को बनाये रखना, सशक्त से अशक्त की रक्ष करना, उनका कानूनी ही नहीं नैतिक दायित्व भी है पर कानून और वयवस्था के नाम पर कभी-कभी कुछ कर्मचारी रक्षक के स्थान पर भक्षक बन जाते हैं। इससे पुलिस की छवि खराब होती है। अधिकारों की आड़ लेकर किसी को सताना, अपराध स्वीकार कराने के नाम पर अभियुक्त को पीट-पीटकर मार डालने के समाचार संभ्रात नागरिकों में भय व्याप्त करते हैं। इससे लोगों में पुलिस के प्रति अविश्वास उत्पन्न होता है।

पुलिस के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे देश की आन्तरिक सुरक्षा कायम करने में देश के विधि विधानों के अनुरूप कार्य करें। देश का साधारण नागरिक चोर, डाकू और अन्य समाज विरोधी तत्वों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए पुलिस पर ही निर्भर रहता है। अत: देश के नागरिकों को ऐसा वातावरण मुहैया कराना जिससे वे भय मुक्त होकर सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें- पुलिस का कर्तव्य है।

स्वतंत्रता के बाद यह आशा की गई थी कि पुलिस व्यवस्था और पुलिस कार्य प्रणाली में प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप गुणात्मक परिवर्तन आएगा। यह उम्मीद भी की गई थी कि पुलिस अपना दमनात्मक और राज्य के सबल बाहु का स्वरूप त्यागकर जनता की पुलिस बन जाएगी और दमन का सिद्धांत छोड़कर जनहित की अवधारणा से प्रेरित होकर कार्य करने लगेगी किंतु ऐसा नहीं हुआ। स्वतंत्रता के पहले पुलिस और विदेशी शासकों का जो संबंध था, वही कायम रखा गया। केवल इस अंतर के साथ कि विदेशी शासकों के स्थान पर सत्ताधारी राजनीतिक दल आ गए। पुरानी पुलिस को पुनर्गठित करके एक नई दिशा और नया दृष्टिकोण दिया जाना चहिए था। इसके लिए पुुलिस की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिए था, किंतु पुलिस प्रशासन को पुलिस अधिनियम १८६१, जो ब्रिटिश शासकों द्वारा अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया गया था, के अनुसार ही चलने दिया जा रहा है।

आम व्यक्ति को तेा अपने लिए ब्रिटिश काल की पुलिस और आज की पुलिस में कोई अंतर नहीं दिखाई देता।

पुलिस का दायित्व केवल विधि का शासन लागू करना है किसी को ठीक करना या सबक सिखाना नहीं। ठीक करने या सबक सिखाने के उद्देश्य से कार्रवाई करने पर पुलिस की साख समाप्त हो जाती है, उसमें अमानवीयता बढ़ती है। परिणामस्वरूप जन-विश्वास समाप्त हो जाता है।

पुलिस को विधि का शासन लागू करने के लिए केवल वैधानिक तरीकों का उपयोग करना चाहिए।

पुलिस को शांति-व्यवस्था का कार्य सौंपकर समाज ने उसे एक पुनीत कर्तव्य सौंपा है। और इस कर्तव्य का निर्वहन पवित्र भावना से करना आवश्यक है। विधि को लागू करनेवाले उसे तोडऩे वाले नहीं हो सकते, क्योंकि यदि नमक अपना स्वाद खो देगा तो उसका वह गुण कहां मिलेगा?

पुलिस के सिपाही का ईमानदार होना आवश्यक है। भ्रष्ट सिपाही कभी भी अपने कर्तव्यों का पालन नही करता। सिपाही को किसी के बहकावे में आए बिना देश की आन्तरिक सुरक्षा का दायित्व निभाना चाहिए।

पुलिस को अपने आचरण, व्यवहार और कार्य-संपादन से अविश्वास की खाई को पाटना।

यदि ब्रिटिश पुलिस ने उन्नीसवीं शताबदी में इंग्लैंड की नियति बदल दी, तक कोई कारण नहीं है कि भारतीय पुलिस बीसवी शताब्दी में हमारी अपनी मातृभूति की नियति न बदल दे। इसके लिए पुलिस-सेवा को मात्र जीवन-यापन का साधन न मानकर इसे एक दर्शन और प्रेरक बल का रूप देना होगा।

पुलिस के लिए केवल एक सीधा रास्ता है, कोई चौराहा नहीं, जहां मार्ग की पहचान मुश्किल हो। पुलिस अपनी भूमिका को सही ढंग से समझकर विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों और सीमाओं के भीतर रहकर विधि-अनुकूल कार्य करना आरंभ कर दे, तो सभी बाधाएं कुछ समय बाद स्वत: दूर हो जाएंगी। केवल प्रारंभ मे कुछ कठिनाईयों को अनुभव हो सकता है। पुलिस को अपनी भूमिका की पहचान करनी होगी।

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 ईमानदारी और जनसेवा का संकल्प लेकर ही हम मीडिया या पुलिस में आते हैं। यह दिखना भी चाहिए। ऐसे समय में जब अविश्वास और प्रामणिकता का संकट सामने हो तब मीडिया का महत्व बहुत बढ़ जाता है क्योंकि वह ही मत निर्माण का काम करती है। एक लोकतंत्र के लिए मीडिया का सक्रिय और संवेदनशील होना जरूरी है और यह शर्त पुलिस पर भी लागू होती है। भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में मीडिया के काम काज पर सवालिया निशान उठ रहे हैं, उसका समाधान मीडिया को ही तलाशना होगा।

पूलिस विभाग आज भी पूराने ढर्रे पर चल रहा हे विभाग ने सालो पहले जो नियम कायदे बनाए थे आज भी उसी लीक पर चल रहा हे भले ही वर्तमान समय के हिसाब से वह ना काफी हो।आज के दोर मे जहां जनसंख्या कि स्थिति बेतहासा बढी वही अपराधियो के अपराध करने के तोर तरीके भी बहूत बदल गए हे आज अपराधी हाईटेक हो गए हे जो कि विभिन्न संसाधनो के माध्यम से जगह जगह अपराध को अंजाम देरहे हे जिससे अपराध का ग्राफ प्रतिदिन बढता जारहा हे ऐसे मे पूराने नियम कानून के आधार पर चलना कहाॅ की तूक हे।

4 comments:

Unknown said...

Ati sundar lekh.

Unknown said...

sir
mai chandan kumar singh
con-230(khagaria)BIHAR se hoo
mai british gov. ke is low se bilkul satisfied nahi ho
hamari gov. ko is par discussion karna chahia
JAI HIND
VANDE MAATARAM

Unknown said...

sir
mai chandan kumar singh
con-230(khagaria)BIHAR se hoo
mai british gov. ke is low se bilkul satisfied nahi ho
hamari gov. ko is par discussion karna chahia
JAI HIND
VANDE MAATARAM

Unknown said...

Thik thak hai