Monday 27 October 2014

सुविधाओं के मानक




सुविधाओं के मानक

Sun, 26 Oct 2014 

यातायात: छोटे शहरों के लिए अधिकतम यात्रा समय 30 मिनट और मेट्रोपालिटन के लिए 45 मिनट
* 12 मीटर से अधिक की सभी गलियों के एक तरफ दो मीटर चौड़ा फुटपाथ
* दो मीटर या अधिक चौड़ाई वाला साइकिल ट्रैक अलग से हो
* प्रत्येक स्थान से 800 मीटर के दायरे में मास ट्रांजिट सिस्टम हो
बसावट: ट्रांजिट कॉरीडोर पर प्रति हेक्टेयर 175 की आबादी
* 400 मीटर पैदल चलने पर 95 फीसद निवासियों के लिए खुदरा बाजार, पार्क, स्कूल और मनोरंजन क्षेत्र
* अपने काम पर जाने के लिए 95 फीसद लोगों के लिए सार्वजनिक यातायात, साइकिल या फिर पैदल की सुविधा
* ट्रांजिट स्टेशन से 800 मीटर पर प्रत्येक ट्रांजिट ओरिएंटेड डेवलपमेंट जोन में 20 फीसद आवासीय इकाइयां गरीब लोगों के लिए हों
* ट्रांजिट स्टेशन से 800 मीटर पर टीओडी जोन में कम से कम 30 फीसद आवासीय और इतनी ही व्यावसायिक इकाईयां हों
जलापूर्ति
* चौबीस घंटे की सुविधा
* सभी घरों को जलापूर्ति का सीधा कनेक्शन
* प्रति व्यक्ति 135 लीटर पानी की आपूर्ति
* सभी कनेक्शन के मीटर हों
* जन से जुड़े चार्ज को वसूलने में शत-प्रतिशत की कुशलता
सीवरेज और स्वच्छता
* सभी परिवारों को टॉयलेट सुलभ हों
* स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग टॉयलेट
* सभी अशोधित जल नेटवर्क से जुड़े हों
* अशोधित जल के संग्रहण और शोधन में शत-प्रतिशत कुशलता
ठोस कचरा प्रबंधन
* रोजाना कचरा उठाने की व्यवस्था
* नगरपालिका द्वारा ठोस कचरे का संग्रहण सौ फीसद हो
* कचरे की छंटाई शत-प्रतिशत
* ठोस कचरे की सौ फीसद रीसाइकिलिंग
बाढ़ के पानी की निकासी
* बाढ़ के पानी के निकासी का पूरा नेटवर्क सड़क से जुड़ा हो
* साल भर में जल जमाव की एक बार भी स्थिति नहीं बने
* पूरे बारिश के पानी के भंडारण की व्यवस्था हो
बिजली
* सभी के पास बिजली कनेक्शन
* चौबीस घंटे की अबाधित आपूर्ति
* सभी घरों में मीटर लगा हो
* रिकवरी लागत शत-प्रतिशत
* न्यूनतम कचरे को बढ़ावा देने वाली दरें
टेलीफोन कनेक्शन
मोबाइल सहित सभी लोगों के पास टेलीफोन कनेक्शन
वाई-फाई कनेक्टीविटी
* सभी के पास वाई-फाई कनेक्टिविटी की सुविधा।
* 100एमबीपीएस इंटरनेट स्पीड
स्वास्थ्य सुविधाएं
* सभी को टेलीमेडिसिन की सुविधा
* आपात स्थिति में मदद 30 मिनट में
* 15 हजार की आबादी पर एक डिसपेंसरी
* हर 50 हजार की आबादी पर एक डायग्नोस्टिक केंद्र
* 5 लाख आबादी पर एक जानवरों का अस्पताल
* एक लाख आबादी पर पालतू जानवरों के लिए एक डिस्पेंसरी
* प्रति लाख आबादी पर 25-30 बेड वाला नर्सिग होम, चाइल्ड वेलफेयर एंड मैटरनिटी सेंटर, इंटरमीडिएट अस्पताल, मल्टी स्पेशिएलिटी अस्पताल, 500 बेड वाला जनरल अस्पताल
शिक्षा
* 2500 की आबादी पर एक प्री प्राइमरी या नर्सरी स्कूल
* पांच हजार की आबादी पर एक प्राइमरी स्कूल (कक्षा एक से पांच)
* एक लाख आबादी पर एक एकीकृत स्कूल (कक्षा एक से 12)
* 45 हजार की आबादी पर एक निशक्त बच्चों के लिए स्कूल
* 1.25 लाख आबादी पर एक कॉलेज
* एक विश्वविद्यालय
* एक वेटरीनरी संस्थान
* 7500 की आबादी पर एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल (कक्षा छह से आठ)
* 10 लाख की आबादी पर एक स्कूल मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए
* 10 लाख आबादी पर एक तकनीकी शिक्षा केंद्र, इंजीनियरिंग कॉलेज,मेडिकल कॉलेज,अन्य प्रोफेशनल कॉलेज, एक पैरा मेडिकल संस्थान
अग्नि शमन
* 5-7 किमी के दायरे की दो लाख आबादी के लिए एक फायर स्टेशन
* 3-4 किमी के दायरे के लिए एक सब फायर स्टेशन।
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सामाजिक बुनियादी ढांचा

Sun, 26 Oct 2014

इसके तहत निम्नलिखित बातें समाहित होती हैं।
शिक्षा: स्कूल और उच्च शिक्षा दोनों ही स्तरों के लिए शहर में उच्च गुणवत्ता वाली शैक्षिक सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए।
स्वास्थ्य सेवा: किसी शहर को रहने योग्य बनाने और लोगों व कारोबार को आकर्षित करने के लिए बेहतर गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाएं अहम कारक होती हैं।
मनोरंजन: किसी भी शहर के निवासियों को खुश रखने में वहां के गुणवत्तापरक मनोरंजन सुविधाएं अहम स्थान रखती हैं। अच्छी खेल सुविधाएं, सांस्कृतिक केंद्र, खुले स्थान और प्लाजा दिल बहलाने के बढि़या केंद्र होते हैं।
अहम सुविधाएं
स्मार्ट सिटी के तीन आधारभूत स्तंभ प्रशासन, बुनियादी और सामाजिक सेवाएं के अलावा कुछ अहम सुविधाएं भी होती हैं।
न्यूनतम कचरा उत्पादन: कचरे पर लगाम लगाने को प्रोत्साहित करने की जरूरत होती है। किसी भी संरचना की कीमत इस आधार पर तय होनी चाहिए कि उसकी सेवाएं कितनी सस्ती और कचरे को हतोत्साहित करने वाली हैं।
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भौतिक बुनियादी ढांचा

Sun, 26 Oct 2014 

गतिशीलता: हमारे शहरों में वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इससे गंभीर जाम, वायु की खराब गुणवत्ता, सड़क हादसों में वृद्धि और ऊर्जा बिल में तेज बढ़ोतरी जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं। खराब बुनियादी ढांचे के चलते पैदल चलना और साइकिल की सवारी को असुरक्षित माना जाने लगा है। सार्वजनिक यातायात अपर्याप्त है। अभी तक सार्वजनिक यातायात की योजना में केवल निजी मोटर वाहनों का ध्यान रखा गया है। जन यातायात प्रणाली को इस सोच के साथ विकसित किया गया है कि जैसे अभी तक बेहतर एकीकृत मल्टी मॉडल सिस्टम विकसित नहीं हो सका हो। इसके चलते अधिक लागत से तैयार इन सुविधाओं से जितनी अपेक्षा की गई थी, उस पर वे खरी नहीं उतर रही हैं।
* आसानी से एक जगह से दूसरी जगह जाने की सहूलियत स्मार्ट सिटी का मर्म है। सिओल, सिंगापुर, योकोहामा और बार्सीलोना के पास ऐसी समृद्ध यातायात प्रणाली उनकी आधुनिकता के केंद्र में है। इस प्रणाली के तहत पैदल, साइकिल और जन यातायात को गंतव्यता का मूल मतलब माना गया है और निजी वोटर वाहनों को सक्रिय रूप से हतोत्साहित किया गया है।
* यदि किसी शहर को आर्थिक विकास का कुशल इंजन बनना है तो यह जरूरी है कि उत्पादन केंद्रों से खपत स्थलों तक उनका बाधारहित कम लागत वाला द्रुतगामी आवागमन सुनिश्चित हो। लिहाजा इसके लिए तीन उपाय जरूरी हैं। पहला, मेट्रो रेल, बीआरटी, एलआरटी, मोनोरेल आदि जन यातायात में सुधार किया जाए। दूसरा, अन्य मोटर वाहनों के लिए बुनियादी ढांचे जैसे रिंग रोड, बाईपास, एलीवेटेड रोड, मौजूदा सड़कों आदि में सुधार किया जाए। अंतिम उपाय के तहत पैदल चलने, साइकिल सवार और जल मार्गो पर भी काम किया जाए।
विश्वसनीय उपयोगी सेवाएं: एक स्मार्ट सिटी के लिए भरोसेमंद, पर्याप्त और उच्च गुणवत्तापरक सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं। चाहे वह बिजली हो, टेलीफोनिक सेवा हो, आइसीटी सेवाएं हो, सब चौबीस घंटे के लिए होनी चाहिए। इसके साथ जल आपूर्ति, जल निकासी, ठोस कचरा प्रबंधन भी उच्च गुणवत्ता वाली होनी चाहिए। माहौल खुशहाल और स्वच्छ होना चाहिए।

स्वतंत्रता का व्यापक अर्थ




स्वतंत्रता का व्यापक अर्थ

दष्टि

पूरे विश्व में आज जिस तरह का वैचारिक व राजनीतिक संकट है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वास्तव में यह स्वतंत्रता का संकट है या स्वायत्तता का संकट है। पुराने ढांचे में जकड़ी व्यवस्थाओं में मनुष्य घिर गया है। उसे नया रास्ता चाहिए। वह न सिर्फ भौतिक व राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होना चाहता है, अपितु सांस्कृतिक व वैचारिक रूप से भी एक नए रास्ते की खोज में है। सारे पुराने ढांचे व्यर्थ हैं, ऐसा कहना उचित नहीं, किन्तु नए समय को प्रतिबिंबित करते हुए नई विचार सरणी में पुरानी चीजें समा नहीं पा रहीं। ये सारे प्रश्न कला, कला-इतिहास, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीतिक सिद्धांत, सांस्कृतिक आलोचना आदि सबमें उपस्थित होते हैं। कला, संस्कृति, पत्रकारिता आदि में बिल्कुल नए कोणों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात हो रही है। उल्टे, कला व साहित्य के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है कि समाज में उनकी स्थिति गौण होती गई है या उपेक्षापूर्ण। जो व्यावसायिकता में संगी-साथी हैं, वे ही ध्यान देने योग्य रह गए हैं। उदाहरण के लिए सिनेमा। सिनेमा जब तक बिक्री का साधन बना रहेगा, उसका मुख्य धारा में अर्थ है। जब वह सोचने व बदलाव का तर्क बनेगा, खलने लगेगा। बाजार ने स्वतंत्रता व स्वायत्तता के अर्थ ही बदल दिए हैं। पर्व-त्योहार की खुशियों को व्यावसायिक आधार देते हुए स्वतंत्रता की सांस्कृतिकता के स्वरूप भिन्न दिखाई देते हैं। किसी राष्ट्र को स्वतंत्र घोषित कर देने मात्र से उसकी वास्तविक स्वतंत्रता का अवबोध नहीं होता। यदि लोकतंत्री स्वरूप भी वहां हो तो भी लोकतंत्र के नाम पर परिवारवाद का पोषण चल रहा है, ताकतवर को और भी ताकत मिलती जा रही है, निर्धन और गरीब होता जा रहा है। इस छद्मी लोकतंत्री समाज में राजनीति ही सबका हेतु बन गई है। क्या यह उचित है कि संस्कृतिविहीन और विचारहीन राजनीति हमारे सारे व्यवहार के केंद्र में हो जाए? राजनीतिक संवर्ग यदि स्वाधीनता को सिर्फ राजनीति की ऊपरी सतह तक रखना चाहता है तो देश का क्या होगा? स्वतंत्रता व स्वायत्तता को व्यापक बनाए जाने की जरूरत है, जहां शब्द, श्रम, कल्पना व विवेक की जगह हो। यदि समाज को व्यापकता और राष्ट्र को स्वाधीनता चाहिए तो व्यक्ति की भी संप्रभुता होनी चाहिए। स्वतंत्रता का वृहत अर्थ है- सहिष्णु होना। क्या हम एक सहिष्णु समाज बन पाए हैं जिसमें सांस्कृतिक स्वतंत्रता, धार्मिक उदारता, भाषाई समंजन, वर्गीय विभेदों से मुक्ति के लिए केंद्र में जगह हो? स्वतंत्रता का अर्थ है- ऐसी संस्कृति की प्रतिष्ठा, जिसमें सबके लिए जगह हो। जिसमें दूसरों के लिए इज्जत हो। मनुष्य की सवरेत्तम गरिमा ही स्वतंत्रता है। केवल राजनीतिक स्वाधीनता पर जो समाज बल देते हैं, वहां व्यक्ति की आत्मा बलवती नहीं हो सकती। यदि समाज का कोई भी व्यक्ति, चाहे वह जिस रूप रंग, भाषा, संप्रदाय, क्षेत्र का हो, अपने अनुसार जीवन नहीं जी सकता तो वृहत अर्थो में इसे स्वतंत्रता नहीं कह सकते। यदि समाजों में इस कदर बंटवारा हो कि एक को लांछित व उपेक्षित जीवन जीने को विवश होना पड़े तो यह स्वतंत्रता नहीं। यानी वास्तविक स्वतंत्रता चाहिए। स्वतंत्रता बोझ न साबित हो। जब आजादी बोझ बनती है तो अकेलापन नियति बन जाता है, दहशत मनस्थिति व एब्सर्डिटी हमारी सोच। स्वतंत्रता का अर्थ है, इतिहास में हमारी वास्तविक व सम्मानजनक उपस्थिति। जो इतिहास हमारा स्थान ही नहीं दे सकता, वहां स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। आज एक तरफ बाहर से भूमंडलीकरण राष्ट्र-राज्यों का अतिक्रमण कर रहा है, तो दूसरी तरफ भीतर से क्षेत्रीय स्वायत्तता के मुक्ति आंदोलन इसकी मूल संरचना को चुनौती दे रहे हैं। दलित-दमित व सीमांत समूह राष्ट्रीयता की अवधारणा को अलग तरह से परिभाषित कर रहे हैं। नवाचारों को जगह मिलना ही स्वतंत्रता है। जिन संस्कृतियों में नए आचार शामिल होते रहते हैं वही विकास के रास्ते में पग बढ़ाती कही जा सकती हैं। भेद-विभेद होना किसी भी लोकतांत्रिक समाज की संरचना में शामिल होना माना जा सकता है। यह बहुत अधिक व विभाजनकारी न हो तथा विभेदों की फंटास को बढ़ाया नहीं जाना चाहिए। वास्तव में इन सिद्धांतों व प्रश्नों में हमारी स्वतंत्रता के बीज छिपे हैं। कारण यह है कि स्वतंत्रता की संस्कृति का यथार्थबोध लगातार बदलता गया है। हमारा हर्ष, हमारी स्मृतियां, हमारी इच्छाएं तथा निजी पहचान का अहसास स्वतंत्रता के विविध कोणों को स्पर्श करते हैं। इससे जो यथार्थ पैदा होता है, उसमें मानव-गरिमा, इच्छा-स्वातंत्र्य, अस्मिता, एहसास, चिंतन-बोध, चेतना, बुद्धि, दृष्टि और मानव अधिकारों के समकालीन अर्थ खुलते हैं। यदि स्वतंत्रता में हमारी खोई हुई जगह न मिले तो इसका अर्थ क्या है? इसमें हमारा विकल्प- स्वातंत्र्य बहाल होना चाहिए। यदि मूल्यांकन करें तो पता चलेगा कि अधिकांश राजनीतिक लड़ाइयां दो संस्कृतियों के संघर्ष को प्रतिबिंबित करती हैं। आजादी की संस्कृति में नागरिक स्वयं का जीवन अपनी इच्छा व विवेक के अनुसार चला सकते हैं तथा अपने लक्ष्यों व खुशियों को पा सकते हैं। जो व्यवस्था अपने भीतर के उठते आक्रोश को समझ नहीं पाती, वह अपनी प्रासंगिकता खोने लगती है। स्वतंत्रता का परिसर ऐसा हो, जिसमें अन्याय का प्रतिरोध हो, परिधि की संस्कृतियों का सम्मान हो। सभ्यताओं के टकराव के बदले उनका समंजन होना स्वाधीनता के लिए मूल्यवान है। सभ्यताओं में संवाद होना चाहिए। अत: सांस्कृतिक समस्याएं वर्चस्ववादी भूमिका में न हों। स्वतंत्रता को स्वच्छंदता का पर्याय न मानें। विकेंद्रीयताएं, स्थानीयताएं अपनी सम्मानजनक जगह हासिल करें। बहुलता के लिए स्पेस बना रहे तथा अस्मिता व आत्मनिर्णय को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। यदि इनका संकुचित अर्थ लिया गया तो स्वतंत्रता एक राजनीतिक हथियार होकर रह जाएगी, जहां व्यापक सांस्कृतिक मूल्यों की अनदेखी होगी। दमनकारी व्यवस्था के विरुद्ध ‘सबके लिए जगह’ की कोशिश वास्तविक स्वतंत्रता देगी। बाजार व पूंजी का संतुलित उपयोग हो, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मनुष्य के मूल्य इनकी दासता के लिए नहीं हैं। यांत्रिकता पूरी तरह हमें गिरफ्त में न ले ले। हममें कल्पना व स्वप्न की उड़ान व स्वतंत्रता बची रहे। यदि हिंसा बढ़ी तो स्वाधीनता पर आंच आएगी। हिंसा की अतिवृद्धि सभ्य समाज का लक्षण नहीं। स्वाधीनता को गरिमापूर्ण बनाए रखने के लिए मनुष्य की गरिमा की बहाली जरूरी है। 

मानसिक स्वास्थ्य




मानसिक स्वास्थ्य बड़ी चुनौती

मुद्दा
 मोनिका शर्मा
केंद्र सरकार ने हाल में पहली बार मानसिक रोगियों के लिए एक नीति की घोषणा की है। आज के समय में इसकी अत्यधिक आवश्यकता है भी। क्योंकि हमारे यहां इस समस्या के लिए स्वास्थ्य बजट का के नाम पर नाममात्र का हिस्सा खर्च किया जाता है। जबकि हालात अत्यधिक चिंतनीय हैं। आबादी के हिसाब से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। ऐसे में जो मानवीय संसाधन भारत के लिए शक्ति और उत्पादन का स्रेत हो सकते थे, वे बोझ बन रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण है भारत जैसे विकासशील देश में मनोरोगियों की बढ़ती संख्या। आज दुनियाभर में 45 करोड़ से भी अधिक लोग मानसिक रोग से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2020 तक अवसाद विश्व में दूसरा सबसे बड़ा रोग होगा। हालात यह हो जाएंगे कि इतनी संख्या में बढ़े मानसिक रोगियों का उपचार विकासशील ही नहीं, विकसित देशों की भी क्षमताओं से परे होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एकत्रित किये गये आंकड़ों के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की वजह से पड़ने वाले भार और इसकी रोकथाम एवं इलाज के लिए उपलब्ध संसाधनों के बीच एक बड़ी खाई है। ऐसे में मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या भारत ही नहीं, नियंतण्र स्तर पर भी चिंता का बड़ा विषय है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हैल्थ एंड न्यूरो साइंसेज के अनुसार भारत में आज दो करोड़ से अधिक लोग गंभीर मेंटल डिसऑर्डर के शिकार हैं। इतना ही नहीं, पांच करोड़ भारतीय ऐसी मानसिक अस्वस्थता से जूझ रहे हैं जो गंभीर तो नहीं पर आने वाले समय में भयावह रूप ले लेगी। ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या है जिन्हें अस्पताल में भर्ती करने और पर्याप्त देखभाल और इलाज मुहैया करवाने की आवश्यकता है। भारत में 35 लाख से भी ज्यादा मानसिक रोगी ऐसे हैं जिन्हें तत्काल स्तरीय उपचार और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है। रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकायट्री एंड एप्लायड साइंसेज के आंकड़े बताते हैं कि मानसिक बीमारियों का इलाज करवाने वालों में 30 फीसद युवा हैं। बेहतर रोजगार पाने और अति महत्वाकांक्षा के चलते युवा पहले तनाव फिर अवसाद और अंतत मनोरोगों की चपेट में आ रहे हैं। कई तरह के व्यसनों से घिर जाने और अनियमित जीवनशैली अपनाने के कारण भी युवा मानसिक रोगों का शिकार बन रहे हैं। भारत में बढ़ रहे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मामले इसलिए भी अहम हैं क्योंकि ये हमारे पूरे सामजिक, आर्थिक और पारिवारिक ढांचे को प्रभावित कर रहे हैं। मनोरागियों के बढ़ते आंकड़े एक बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। मनोरोगियों की बढ़ती संख्या न केवल आर्थिक रूप से समस्या बनती है बल्कि सामाजिक स्तर पर विखंडन और असमानता का वातावरण भी बनाती है। कई बार अवसाद और मानसिक रोग से पीड़ित लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति भी देखने मिलती है। आज के दौर में जीवनशैली जनित मानसिक तनाव मेंटल डिसऑर्डर के बढ़ते मामलों की अहम वजह है। पारिवारिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और सामाजिक असुरक्षा जैसे मसलों के चलते देखने में यह भी आ रहा है कि भारत में पुरु षों से ज्यादा महिलाएं मानसिक रोगों की शिकार बन रही हैं। गौरतलब है कि महिलाएं भावनात्मक स्तर घर और बाहर दोनों ही जगह अनिगनत परेशानियों से जूझती हैं। 2012 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार तकरीबन 57 फीसद महिलाएं मानसिक विकारों की शिकार बनी थीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर 5 में से 1 महिला और हर 12 में से 1 पुरु ष मानसिक व्याधि का शिकार हैं। कुल मिलाकर हमारे यहां लगभग 50 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में मानसिक विकार से जूझ रहे हैं। इनमें से 85 फीसद गंभीर मानसिक रोग वाले मरीज उचित इलाज और देखभाल से वंचित हैं। सामान्य मानसिक विकार के मामले में तो यह आंकड़ा और भी भयावह है। गौरतबल है कि सन 1982 में भारत में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरूआत की गई। इसका उद्देश्य जनमानस में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाना था। 1987 में मेंटल हैल्थ एक्ट बना जो मनोरोगों से संबंधित कानून है। बावजूद इसके आज तक हमारे यहां मानसिक रोगों के इलाज के लिए उपलब्ध सेवाओं और मनोचिकित्सकों की भारी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की संस्था मेंटल हैल्थ एटलस की 2011 रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सरकार स्वास्थ्य बजट का केवल 0.06 प्रतिशत ही मेंटल हैल्थ के लिए खर्च करती है। अमेरिका में यह 6.20 प्रतिशत और इंग्लैंड में 10.28 फीसद है। मानसिक रोगियों को सामाजिक रूप से भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। शिक्षा, रोजगार और शादी ब्याह के साथ ही मनोरोगियों की सामाजिक स्वीकार्यता भी एक बड़ा प्रश्न है। उन्हें हर स्तर पर भेदभाव का दंश झेलना होता है। मानसिक बीमारियों के चलते अन्य सामाजिक समस्याएं भी उनके असहाय जीवन को घेर लेती हैं। जैसे परिवारों का टूटना, बेरोजगारी और व्यसनों को बढ़ावा। ये सारी बातें अंतत: समाज की पूरी रूपरेखा पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। मनोरोग से अंधविास की सोच को भी बढ़ावा मिलता है। परिवार के किसी सदस्य के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने पर आज भी लोग आधुनिक इलाज के बजाय झाड़फूंक के अंधविासी टोटकों में फंस जाते हैं। इस कारण मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों का शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न तो होता ही है, उन्हें आर्थिक स्तर पर भी कई तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है। मनोरोगियों से जमीन जायदाद छीन लेना और प्रापर्टी से बेदखल कर घर से निकाल देने के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं। यह विडम्बना ही है कि मानसिक बीमारियों से ग्रसित मरीजों को अपनों का भी साथ और संवेदना नहीं मिलती। जरूरी है कि समय रहते इस भयावह तकलीफ की पदचाप सुन ली जाए। आज के दौर की जीवनशैली से उपजती तनाव और अवसाद जैसी समस्याओं के कारण लगातार मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ रही है। आमजन में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सजगता लाने का प्रयत्न किया जाए। सामाजिक कल्याण से जुड़ी नीतियों और योजनाओं में मानसिक रोगियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी पहलुओं को भी शामिल किया जाना समय की जरूरत है।

कैलाश सत्यार्थी




साझा उपलब्धि

:Sat, 11 Oct 2014

एक ऐसे समय भारत के जाने-माने समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की अद्भुत जीवट वाली किशोरी मलाला यूसुफजई को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब दोनों देशों के बीच सीमा पर युद्ध की सी स्थिति बनी हुई है। एक तरह से इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार दोनों देशों को सद्भाव का संदेश दे रहा है-इसलिए और भी प्रभावी तरीके से, क्योंकि कैलाश सत्यार्थी और मलाला को यह पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया है।
इस पुरस्कार के जरिये दोनों देशों की जनता को शायद यही संदेश देने की एक कोशिश की गई है कि उसके परस्पर हित एक-दूसरे के प्रति मैत्रीभाव में ही निहित हैं और दोनों को इस पर काम करने की ज्यादा जरूरत है कि दमित-शोषित तबके का उत्थान कैसे हो? जहां कैलाश सत्यार्थी बच्चों के अधिकारों के लिए सतत संघर्ष करने वाली शख्सियत के प्रतीक हैं वहीं मलाला इस बात की कि पाकिस्तान में लड़कियों की शिक्षा के लिए क्या कुछ करने की जरूरत है? मलाला ने लड़कियों की शिक्षा के विरोधी चरमपंथियों के खिलाफ जैसी अलख जगाई है उससे पाकिस्तान को एक नई ऊर्जा मिली है। जिस तरह भारत और पाकिस्तान के बीच बहुत कुछ साझा है उसी तरह उन उद्देश्यों में भी है जिनके प्रति कैलाश सत्यार्थी और मलाला समर्पित हैं। भारत और पाकिस्तान की एक बड़ी समस्या यही है कि अच्छी-खासी संख्या में बच्चों को स्वाभाविक विकास के लिए उपयुक्त माहौल नहीं मिल पा रहा है। भारत और पाकिस्तान में गरीब तबके के बच्चों के समक्ष अलग-अलग तरह की समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन उनकी जड़ में गरीबी और अशिक्षा ही है।
कैलाश सत्यार्थी को मिले नोबेल शांति पुरस्कार के बाद जिस तरह भारत की केंद्रीय सत्ता और राज्य सरकारों के साथ ही समाज को इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि बच्चों को तस्करी, बंधुआ मजदूरी और अन्य विपरीत परिस्थितियों से कैसे मुक्त किया जाए उसी तरह पाकिस्तान को इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि वहां की नई पौध और खासकर लड़कियों को शिक्षा की रोशनी कैसे मिले? भले ही कैलाश सत्यार्थी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैसे चर्चित न हों जैसी मलाला हैं, लेकिन इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बच्चों के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए उल्लेखनीय काम करने के लिए वह पूरे दक्षिण एशिया में अपनी पहचान रखते हैं। दरअसल वही एक ऐसे शख्स हैं जिन्होंने दुनिया को यह बताया कि भारत और इस जैसे अन्य देशों में बाल मजदूरी एक भयावह समस्या है। कैलाश सत्यार्थी और मलाला को नोबेल का शांति पुरस्कार मिलने के बाद कुछ असहमति के स्वर भी सुनाई दें तो हैरत नहीं, क्योंकि कई लोगों का यह मत है कि मलाला ने लड़कियों की शिक्षा के लिए जमीनी स्तर पर काम नहीं किया।
ऐसे स्वरों के बावजूद इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि मलाला ने पाकिस्तान में एक चेतना जगाई है और वह वहां नजर भी आती है। इस बार नोबेल पुरस्कार समिति की इस टिप्पणी पर भी बहस छिड़ सकती है कि दोनों देश शिक्षा के लिए अतिवादियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं और हम हिंदू-मुस्लिम को यह पुरस्कार दे रहे हैं, लेकिन यह समय तो भारत-पाक को मिली साझा उपलब्धि पर गर्व करने और इस पुरस्कार के जरिये मिले संदेश को समझने का है।
(मुख्य संपादकीय)
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बचपन बचाने की जिद

Sat, 11 Oct 2014 

कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने से बाल श्रम के प्रति सरकार और समाज में संवेदनशीलता की अपेक्षा कर रहे हैं विवेक शुक्ला
कौन हैं कैलाश सत्यार्थी? उन्हें शुक्रवार को जब नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई तो कुछ लोग सवाल करने लगे कि वह कौन हैं? यह सवाल लाजिमी था। कारण यह है कि कैलाश सत्यार्थी मीडिया की नजरों से दूर रहकर बेसहारा बच्चों के लिए लंबे समय से काम करते रहे हैं। उन्होंने कभी भी अपने आप को अथवा अपने काम को प्रचारित-प्रसारित करने का प्रयास नहीं किया। अपने एक हालिया इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि बाल मजदूरी सामाजिक अपराध है, फिर भी यह कुप्रथा भारत में सैकड़ों सालों से चली आ रही है। देश आजाद होने के बाद भी आज करोड़ों बच्चों को घरों, भट्ठों, दुकानों, होटलों, ढाबों आदि में काम करते हुए आसानी से देखा जा सकता है। अक्सर हमारी नजर ऐसे बच्चों पर पड़ती है मगर हममें से ज्यादातर लोग अफसोस जताने के अलावा कुछ कर नहीं पाते, लेकिन जब कैलाश सत्यार्थी की नजर ऐसे बेबस और लाचार बच्चों पर पड़ी तो उन्होंने इन बच्चों को बाल मजदूरी के अभिशाप से मुक्ति दिलाना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया और सतत रूप से अपने इस काम में चुपचाप लगे रहे। साल 1980 में सत्यार्थी द्वारा शुरू किया गया बचपन बचाओ आंदोलन आज तक 90 हजार मासूमों की जिंदगी तबाह होने से बचा चुका है।
मध्य प्रदेश के विदिशा में जन्में कैलाश सत्यार्थी कहते हैं कि बाल मजदूरी महज एक बीमारी नहीं है, बल्कि कई बीमारियों की जड़ है। इसके कारण कई जिंदगियां तबाह होती हैं। रास्ते में आते-जाते बच्चों को काम करता देखना बड़ा अजीब लगता था, बेचैनी होने लगती थी, तो नौकरी छोड़ दी और 1980 में बचपन बचाओ आंदोलन की नींव रखी। कैलाश सत्यार्थी को पाकिस्तान की मलाला युसुफजई के साथ इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। कैलाश सत्यार्थी को भोपाल गैस त्रासदी के लिए राहत अभियान और बच्चों के लिए काम करने के लिए दुनिया का यह सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया गया है। पिछले दो दशकों से वह देश में फैले बालश्रम की बुराई के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। नोबेल पुरस्कार की घोषणा होने के बाद कैलाश सत्यार्थी ने कहा कि यह सम्मान सवा सौ करोड़ भारतीयों का सम्मान है। यह भारत के लोकतंत्र की जीत है जिसकी वजह से भारत से यह लड़ाई आरंभ हुई और आज दुनिया में हम जीत रहे हैं। यह उन बच्चों की भी जीत है जो अपनी जिंदगी बदलने के कड़े संघर्ष में जुटे हैं। यह उन लोगों की भी जीत है जो बालश्रम के उन्मूलन में जी-जान से जुटे हैं। कैलाश सत्यार्थी ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा था कि बचपन पर पूरी दुनिया में खतरे हैं, लेकिन अपने देश की हालत सबसे खराब है। यहां छह करोड़ से अधिक बाल मजदूर हैं। हजारों बच्चे चूमन ट्रैफिकिंग के शिकार होते हैं। रोजाना हजारों बच्चे मारपीट के शिकार होते हैं। बाल अधिकारों के प्रति हम आज भी उतने सहिष्णु नहीं हो पाए हैं जितना हमें होना चाहिए। वह मानते हैं कि देश में लाखों बच्चे ऐसे हैं जो उचित व्यवस्था के अभाव में मानसिक-शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि देश में बाल अधिकारों से जुड़े कानून नहीं हैं, लेकिन या तो वे इतने दोषपूर्ण हैं कि बाल अधिकारों को संरक्षण नहीं दे पा रहे या व्यवस्थागत अक्षमता के चलते इनका अमलीकरण नहीं हो रहा है। बाधाएं जो भी हों, यह तय है कि ऐसे बच्चों की कमी नहीं, जिनका बचपन असमय ही छीन लिया गया है।
कैलाश सत्यार्थी कहते हैं कि बच्चों के मौलिक अधिकार की बातें कागजों तक ही सीमित हैं। समाज बच्चों को उत्तम सुविधाएं देने में असफल रहा है। उनकी शिक्षा-दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऐसे कामों में लगाना बदस्तूर जारी है जो उनके शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हुआ है। ऐसे कार्य जो बच्चों के बौद्धिक, मानसिक, शैक्षिक तथा नैतिक विकास में बाधा पहुंचाएं बालश्रम की परिधि में आते हैं। कैलाश सत्यार्थी का मानना है कि 1986 में बने बालश्रम उन्मूलन कानून में कई खामियां हैं। इस कानून के अनुच्छेदों से यही प्रतिध्वनित होता है कि केवल जोखिम भरे कार्यो में लगे बच्चे ही बाल श्रमिक की परिधि में आते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी स्थिति जो बच्चे को कमाई करने पर मजबूर कर रही हो, बालश्रम है। सत्यार्थी कहते हैं- सबसे सस्ते और कमजोर श्रमिक बच्चे ही हैं। खासतौर से लड़कियां। ऐसे में सस्ते मजदूर की मांग भारत के दूरदराज के गांवों से बड़े शहरों की तरफ बच्चों की तस्करी को बढ़ावा दे रही है।
एक अनुमान के मुताबिक भारत में दुनिया के किसी भी हिस्से के मुकाबले अधिक बाल मजदूर हैं। जाहिर तौर पर बच्चों का अपहरण गैरकानूनी है, लेकिन इस मसले पर कानूनी स्थिति साफ नहीं है कि कब वे कानूनी तौर से काम कर सकते हैं। सत्यार्थी ने एक जगह लिखा है कि बाल श्रम कानून 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखने की इजाजत नहीं देता है, लेकिन कानूनी रूप से 18 वर्ष से कम उम्र होने पर उसे बच्चा ही माना जाता है। दुर्भाग्य से हमारा बाल श्रम निषेध और विनियमन कानून पुराना पड़ चुका है। यह कानून कहता है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे को खतरनाक व्यवसायों में काम नहीं दिया जा सकता है। क्या इसका यह अर्थ है कि गैर-खतरनाक कामों में दो साल के बच्चों को लगाया जा सकता है? कैलाश सत्यार्थी ने बताया कि जाहिर है कि यह कानून काफी पुराना है। अब इस मुद्दे को उठाया गया है और संसद में एक संशोधन लंबित है। हालांकि यह संशोधन काफी समय से लटका हुआ है। अगर कानून में बदलाव होता है तो बच्चों के अपहरण के खिलाफ लड़ाई थोड़ी आसान हो जाएगी। बहरहाल, आप मान कर चलिए कि कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने से सरकार और समाज बालश्रम की चक्की में पिसते बच्चों की सुध लेंगे।
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बच्चे अब भी काम पर

नवभारत टाइम्स| Oct 11, 2014,

मलाला और कैलाश को नोबेल
भारत के कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई को ऐसे समय में संयुक्त रूप से नोबेल पीस प्राइज मिला है, जब दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर है। उनका पुरस्कार दोनों मुल्कों की साझा उपलब्धि है। पर इनकी कामयाबी का जश्न तभी मुकम्मल होगा, जब हम मूंछ की लड़ाई से ऊपर उठकर उस मकसद के लिए लड़ेंगे, जिनके लिए इन्होंने भारी तकलीफें झेली हैं।

मलाला ने तालीम के लिए आतंकियों की गोली खाई तो कैलाश सत्यार्थी ने हजारों बच्चों को गुलामी से मुक्त कराने में पूरा जीवन लगा दिया। 11 जनवरी 1954 को मध्य प्रदेश के विदिशा में जन्मे कैलाश को बचपन में ही यह बात परेशान करने लगी कि आखिर कुछ बच्चे उनकी तरह स्कूल क्यों नहीं जा पाते? यह सवाल उन्होंने कई लोगों से पूछा। आखिरकार एक गरीब व्यक्ति ने जवाब दिया कि अगर उसका बच्चा स्कूल जाएगा तो भूखा रह जाएगा।

तब कैलाश ने गरीबी और अभाव के दंश को पहचाना और मन ही मन संकल्प लिया कि वे हर बच्चे को स्कूल तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे। बस यहीं से शुरू हुआ उनका संघर्ष। पेशे से इंजिनियर कैलाश ने उन ताकतवर हितों से टकराने का फैसला किया जो बाल मजदूरी के दम पर लखपति-करोड़पति बने घूमते थे। कैलाश ने 'बचपन बचाओ आंदोलन' नामक संगठन की स्थापना की और इसके जरिए हजारों बाल मजदूरों को कालीन, कांच, ईंट भट्ठों, पत्थर खदानों, घरेलू बाल मजदूरी तथा साड़ी उद्योग जैसे खतरनाक कामों से मुक्त कराया।

लेकिन यह इतना आसान भी नहीं रहा। उन्हें अपमान झेलने पड़े, उन पर हमले हुए और राष्ट्रहित के विरोध में काम करने का आरोप लगा। उनके संगठन ने अब तक 80 हजार बच्चों को आजाद कराया है। बाल मजदूरी की पूर्ण समाप्ति के लिए बचपन बचाओ आंदोलन ने बाल मित्र ग्राम की परिकल्पना की है। इसके तहत किसी ऐसे गांव का चयन किया जाता है जहां बाल मजदूरी का चलन हो। गांव से धीरे-धीरे बाल मजदूरी समाप्त की जाती है और बच्चों का स्कूल में नाम लिखवाया जाता है। लेकिन भारत के बच्चों के जीवन में उजाला लाने का सपना पूरा होने के करीब भी नहीं पहुंच रहा।

आज देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा गुम होता है और उनमें से आधे फिर कभी नहीं मिलते। यहां बच्चे घरों-दुकानों में काम करते हैं, सड़कों पर भीख मांगते हैं। पटाखा बनाने के जानलेवा काम में उनकी मौजूदगी जल्द ही दिवाली की कानफाड़ू चहल-पहल के रूप में दिखाई देने वाली है। यह सिर्फ कैलाश सत्यार्थी की नहीं, सरकार और समाज की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों के दुख से नजर न फेरें और उनकी बेरंग जिंदगी में थोड़ी रोशनी लाने की कोशिश करें।
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बच्चों के लिए नोबेल

:10-10-14 

शांति के लिए हर साल दिया जाने वाला नोबेल पुरस्कार इस बार कई विरोधाभासों की ओर संकेत करता है। पाकिस्तान की बेटी मलाला यूसुफजई और भारत में बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले कैलाश सत्यार्थी को यह पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया है। नोबेल पुरस्कार के निर्णायकों ने एक हिंदू और एक मुस्लिम, एक भारतीय और एक पाकिस्तानी को साथ-साथ पुरस्कार देकर इस बात की ओर ध्यान खींचा है कि जाति, धर्म, राष्ट्रीयता जैसे तमाम विभाजनों के आर-पार बच्चों की स्थिति दुनिया में एक जैसी है। भारत और पाकिस्तान के इन नुमाइंदों को पुरस्कार तब मिला है, जब दोनों देशों के बीच सीमा पर गोलाबारी हो रही है और आम नागरिक मारे जा रहे हैं। पुरस्कार का संदेश यह है कि दोनों देशों को व्यर्थ के मुद्दों पर युद्ध लड़ने की बजाय अपने देश के नागरिकों की स्थिति बेहतर करने के लिए अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए, हालांकि इसकी संभावना कम ही है कि यह संदेश सुना जाएगा।

दोनों देशों को यह पुरस्कार मिला है, लेकिन यह खुशी मनाने का मौका नहीं है। मलाला को पुरस्कार मिलना यह बताता है कि पाकिस्तान में पढ़ने जैसे एक स्वाभाविक अधिकार को पाने के लिए किसी बच्ची को गोली मारी जा सकती है। उसी तरह, कैलाश सत्यार्थी को पुरस्कार मिलना इस बात की ओर इशारा करता है कि भारत में आज भी करोड़ों बच्चे ऐसे होंगे, जिन्हें स्वाभाविक बचपन नहीं मिला है, जिसमें सुरक्षा, पोषण, लाड़-प्यार और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतें भी नहीं हैं। भीषण गरीबी के चलते लाखों बच्चे जगह-जगह अमानवीय परिस्थितियों में श्रम कर रहे हैं। ऐसी स्थिति सिर्फ दूरदराज के इलाकों में ही नहीं है, देश की राजधानी दिल्ली से अक्सर तमाम वैध-अवैध कारखानों में बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने वाले बच्चों की खबरें आती रहती हैं। देश के तमाम गरीब इलाकों से मां-बाप गरीबी की वजह से अपने बच्चों को दूरदराज के शहरों में भेजने को विवश हैं और महानगरों से भी हर साल हजारों बच्चे लापता होते हैं।

भारत की कानून-व्यवस्था मशीनरी के लिए जिन अपराधों की कोई खास अहमियत नहीं है, उनमें बच्चों का गायब हो जाना या उनकी तस्करी भी शामिल है। जब निठारी जैसे किसी कांड से इस समस्या पर ध्यान जाता है, तो समाज, सरकार और मीडिया में हलचल होती है, लेकिन आज भी मां-बाप के लिए अपने बच्चों के गायब होने पर पुलिस में रपट लिखवाना बहुत मुश्किल है, यह तो तकरीबन नामुमकिन है कि पुलिस को खोए हुए किसी बच्चे की तलाश में लगाया जा सके। महत्वपूर्ण किसी व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार मिलना नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि समाज और सरकार बच्चों की तकलीफों के प्रति संवेदनशील बने, क्योंकि यह समाज का एक ऐसा वर्ग है, जो अपनी आवाज भी नहीं उठा सकता, जिसका कोई वोट बैंक नहीं है। शायद इस पुरस्कार का महत्व यही है कि हम अपने देश में बच्चों की स्थिति के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनें।

इस पुरस्कार के साथ मलाला पर एक भारी जिम्मेदारी भी आ गई है और उनकी जान को खतरा भी बढ़ गया है। अभी मलाला की उम्र सिर्फ 17 साल है और उनके आगे एक पूरी जिंदगी पड़ी है। नोबेल पुरस्कार विजेता होने की जिम्मेदारी और कट्टरवादियों से खतरा क्या उसकी जिंदगी को सामान्य बने रहने देगा? एक प्रतीक बन जाना, एक सहज स्वाभाविक बच्ची और महिला बनने में बाधा तो नहीं बनेगा? हमें उम्मीद करनी चाहिए कि मलाला और उसके साथ दुनिया के तमाम बच्चे किसी आतंक से दूर एक स्वाभाविक सुंदर जीवन जी पाएं।
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देश का गौरव

वर्ष 2014 के लिए पिछले हफ्ते से विभिन्न श्रेणियों में एक के बाद एक घोषित नोबेल पुरस्कारों की सूची में भारत के हिस्से शांति का नोबेल पुरस्कार आना कई-कई दृष्टियों से कालजयी उपलब्धि है। मध्य प्रदेश के छोटे से शहर विदिशा में जन्मे साठ वर्षीय कैलाश सत्यार्थी को यह पुस्कार बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए उल्लेखनीय कार्य के एवज में दिया गया है। अपने गैर सरकारी संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के जरिए पिछले करीब तीस सालों से बाल श्रम और बच्चों की तस्करी के विरुद्ध संघर्षरत कैलाश सत्यार्थी के साथ ही तालिबान से लोहा लेने वाली पाकिस्तान की सत्रह वर्षीय किशोरी मलाला यूसुफजई को भी इस पुरस्कार के लिए चुना गया है। जांबाज मलाला तालिबान के आतंक के साये में जीने वाले स्वात इलाके में बेखौफ होकर लड़कियों की शिक्षा की पैरवी करते हुए उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित करती रहीं हैं। इसके लिए वह दो साल पहले तालिबान की गोलियों का शिकार होकर मरते-मरते बची हैं। बाल अधिकारों के प्रति समर्पित इन शख्सियतों को यह पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया है। शांति के लिए नोबेल के रूप में आज हमारे देश के हिस्से वह सम्मान आया है जो उसके विचार व धर्म-दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण आधार रहा है और जिसकी पैरवी वह देश-दुनिया के मंच पर आदिकाल से करता रहा है। शांति के इसी विचार के बल पर महात्मा गांधी जैसे सत्य, अहिंसा व शांति के पुजारी ने तलवार और ढाल के बिना उस अंग्रेजी साम्राज्य को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था, जो लाठी और गोली का भय दिखा अपने साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त न होने का दंभ भरा करता था। महात्मा गांधी का कद बेशक नोबेल पुरस्कार से कहीं ऊपर गिना जाता रहा है लेकिन यह विडम्बना ही है कि उनका सत्य, अहिंसा और शांति का विचार पूरी दुनिया लिए तो अनुकरणीय बन गया पर उनका नाम कभी शांति के नोबेल के लिए आगे नहीं आया। लेकिन आज गांधी के ही देश के एक समर्पित समाजसेवी के हिस्से यह पुरस्कार आना देश के लिए वाकई गौरव की बात है। नोबेल के शांति पुरस्कार के लिए भारत और पाकिस्तान के दो शांतिदूतों का चुना जाना भी अपने आप में बहुत सारे सवालों का जवाब है। सबसे पहला तो यही कि एशिया के नक्शे पर महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराने वाला भारत आज भी शांति की पहल करने वाला सबसे पहला देश है और अपने हक के लिए तब तक हथियार उठाने से परहेज करता है जब तक उसे लगता है कि मामला शांति से सुलझ जाएगा। बहरहाल, कैलाश सत्यार्थी के सामने अब देश ही नहीं, दुनिया भर के बच्चों को बाल मजदूरी व यौन व्यापार जैसे घृणित कायरे से आजाद कराने की चुनौती है।
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प्रेरणा ले सरकार

:Sun, 12 Oct 2014

कैलाश सत्यार्थी बाल श्रम और बाल तस्करी में फंसे हजारों बच्चों को मुक्त करवाने की अपनी मुहिम के लिए विश्व के सर्वोच्च सम्मान नोबेल शांति पुरस्कार के हकदार बने, उनका कार्य क्षेत्र हरियाणा भी रहा, इस कनेक्शन से सरकार को प्रेरणा लेनी चाहिए। कई सवाल सीधे सरकार के दायित्वबोध, कर्तव्य अनुपालन और प्रत्यक्ष जवाबदेही से जुड़े हैं। क्या सरकार या अधिकारी 21 में से किसी एक जिले के भी बाल श्रम से मुक्त होने का दावा करने में सक्षम है? कोई यह दावा करने सामने आए कि ईंट भट्ठों से लेकर खनन क्षेत्रों, ढाबों, चाय की दुकानों, सब्जी मंडियों और पॉश कालोनियों में कोई बाल मजदूर काम नहीं कर रहा। बताया जाए कि फैक्टरियों, कारखानों, यहां तक कि जोखिम वाले उद्योगों में बिना रिकॉर्ड कितने बाल मजदूर काम कर रहे हैं, इनसे मुक्ति दिलवा कर कितने बाल मजदूरों का पुनर्वास किया गया? समाज व बाल कल्याण के नाम पर भारी-भरकम विभाग तो काम कर रहा है पर कितने बच्चों को मजदूरी से हटा कर स्कूलों में भेजा गया। विडंबना है कि गरीब परिवारों में बच्चों को भावी डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शिक्षक, अनुसंधानकर्ता के स्थान पर भावी मजदूर के रूप में देखा जाता है। कारण स्पष्ट है कि परिवार का मुखिया बच्चों की शिक्षा को देखे या दो वक्त की रोटी को।
भले ही केंद्र व राज्य सरकार की कई योजनाएं केवल गरीब परिवारों को ध्यान में रखकर आरंभ की गईं पर इस पहलू पर अनुसंधान नहीं किया गया कि वास्तव में कितने बच्चे या गरीब परिवार इनसे लाभान्वित हुए? कुछ अर्सा पूर्व सरकार की ओर से अभियान शुरू किया गया था जिसके तहत हर शहर में बाल मजदूरों की पहचान करने का जिम्मा समाज कल्याण विभाग को सौंपा गया था। शायद ही किसी को पता हो कि अभियान की क्या गत हुई? कड़वा सच है कि किसी शहर में बाल मजदूरों पर सर्वे नहीं करवाया गया। श्रम विभाग की टीम शायद ही किसी शहर में नियमित दौरा करके बच्चों के कल्याण की मुहिम में शामिल हो रही है। अधिकतर सामाजिक संगठनों की सक्रियता दिखावे तक सीमित है। एनजीओ की कार्य प्रकृति वैसी नहीं रह गई जिस अवधारणा से इनका गठन हुआ। सरकार कार्य शैली में बदलाव लाकर समस्या को व्यापक संदर्भ में देखे। हर शहर में नियमित जांच की परंपरा आरंभ की जाए, बच्चों से मजदूरी करवाने वालों के खिलाफ दंड का प्रावधान कड़ा हो। अभिभावकों को जागरूक करने का जिम्मा सरकार सामाजिक संगठनों के साथ मिल कर उठाए।
[स्थानीय संपादकीय: हरियाणा]
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बाल श्रम की स्थिति

Mon, 13 Oct 2014 

उत्तराखंड में बाल श्रम की स्थिति को लेकर सरकार की लापरवाही चिंतनीय है। अगर सरकार वास्तव में इस दिशा में गंभीर होती तो सरकारी आंकड़ों में राज्य में बाल श्रमिकों का आंकड़ा महज खानापूर्ति के लिए ही दर्ज नहीं होता। आपको अपने असापास रोजाना ही चाय की दुकानों पर कप-प्लेट धोते या साइकिलों के पंक्चर लगाते छोटे-छोटे बच्चे नजर आते हों मगर सरकारी नुमाइंदों को ऐसा नहीं दिखता। जी हां, यह एक कड़वा सच है कि सूबे के श्रम विभाग ने मौजूदा समय में प्रदेश में केवल 83 बच्चे ही बाल श्रमिकों के रूप में चिह्नित किए हैं। हालांकि इस क्षेत्र में कार्यरत एनजीओ उत्ताराखंड में बाल श्रमिकों की संख्या का आंकड़ा पांच हजार से ज्यादा बताते हैं लेकिन विभाग के अनुसार यह आंकड़ा 83 ही है। एक ओर संपूर्ण देश बाल अधिकारों के लिए संघर्षरत कैलाश सत्यार्थी को नोबल पुरस्कार मिलने पर गौरवान्वित महसूस कर रहा है तो दूसरी ओर, उत्ताराखंड में बाल श्रमिकों और उनके अधिकारों के हालात चिंता पैदा करते हैं। यहां श्रम विभाग के पास अभी तक बाल श्रमिकों के चिह्नीकरण के लिए कोई मजबूत तंत्र नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं कि श्रम महकमा कुछ करता ही नहीं, किसी शिकायत या सूचना पर जरूर श्रम विभाग के अधिकारी-कर्मचारी कार्यवाही करते हैं और फिर अगली सूचना तक के लिए ओढ़ लेते हैं खामोशी। इतना ही नहीं, अधिकारी यह तक जानने की जहमत नहीं उठाते कि जिन बाल श्रमिकों को मुक्त कराया गया था, वे अब क्या कर रहे हैं, यानी दोबारा सुध लेने की उन्हें फुर्सत नहीं। बाल श्रमिकों के चिह्नीकरण की प्रक्रिया की असलियत तो आपने देख ली लेकिन उससे ज्यादा सोचनीय पहलू यह है कि बाल श्रमिकों के पुनर्वास की दिशा में भी सरकारी स्तर पर कोई पहल नहीं। यह स्थिति तब है जबकि चिह्नीकरण और पुनर्वास के लिए बजट उपलब्ध है। सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के अंतर्गत 10 विशेष विद्यालयों को स्वीकृति मिलने के बावजूद केवल तीन में ही बाल श्रमिकों को शिक्षा दी जा रही है। बाल श्रमिकों के सर्वेक्षण और चिह्नीकरण के लिए दो लाख तथा उनकी शिक्षा और पुनर्वास के लिए दस लाख रुपये का प्रावधान है लेकिन विभागीय उदासीनता का आलम यह कि इसे भी खर्च करने को कोई तैयार नही। अब जबकि अपने देश के कैलाश सत्यार्थी ने इसी क्षेत्र में कार्य कर नोबल पुरस्कार जैसा सम्मान अर्जित कर देश का गौरव बढ़ाया है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि अब उत्ताराखंड में भी बाल श्रमिकों के कल्याण के लिए कुछ कदम उठाए जाएंगे।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]
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व्यर्थ की नसीहत

Tue, 14 Oct 2014

भारतीय समाज सेवी कैलाश सत्यार्थी और ब्रिटेन में रह रही पाकिस्तानी किशोरी मलाला यूसुफजई को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने से दोनों देश के लोग गदगद हैं। उन्हें होना भी चाहिए, क्योंकि तमाम किंतु-परंतु के बावजूद यह दुनिया का सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित पुरस्कार है। हालांकि कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई जिन कायरें के लिए प्रतिबद्ध हैं उनमें कोई सीधी समानता नहीं है, फिर भी नोबेल पुरस्कार समिति ने यह पाया कि दोनों लोग बच्चों के कल्याण के लिए अपने-अपने ढंग से काम कर रहे हैं। नोबेल पुरस्कार समिति के इस निष्कर्ष से असहमत नहीं हुआ जा सकता और इससे भी किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए कि कैलाश और मलाला की नोबेल शांति पुरस्कार में साझेदारी होगी। यह साझा सम्मान दोनों देशों को इस पर चिंतन-मनन करने के लिए प्रेरित कर रहा है कि वे बच्चों के स्वाभाविक विकास के लिए बेहतर माहौल कैसे बनाएं? इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि गरीबी और अन्य अभावों के चलते भारत में एक बड़ी संख्या में बच्चे चाहकर भी स्कूल जाने से वंचित हैं। इससे भी खराब बात यह है कि वे प्रतिकूल माहौल में काम करने के लिए विवश हैं। ऐसी ही स्थिति पाकिस्तान और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के साथ दुनिया के अन्य कई देशों में भी है। बावजूद इसके पाकिस्तान में स्कूल जाने वाली लड़कियों के समक्ष जैसा संकट है वैसा भारत में नहीं है। हो सकता है कि भारत में किन्हीं ग्रामीण इलाकों में ऐसे लोग मिल जाएं जो लड़कियों की शिक्षा को पर्याप्त महत्व न देते हों, लेकिन यहां उन्हें जोर-जबरदस्ती स्कूल जाने से रोकने वाला वैसा कोई नहीं है जैसा पाकिस्तान में तहरीके तालिबान और उससे जुड़े अन्य आतंकी समूहों के रूप में कई संगठन मौजूद हैं।
लड़कियों के लिए पढ़ाई जरूरी बताने वाली मलाला को तहरीके तालिबान के आतंकियों ने ही गोली मारी थी। हाल में इन आतंकियों ने तहरीके तालिबान से अलग होकर जमात उल अहरार नामक संगठन बना लिया है। यह संगठन अब भी मलाला के विरोध में खड़ा है। पता नहीं यह कितना ताकतवर और खूंखार है, लेकिन इस सच्चाई से पाकिस्तान सरकार भी इन्कार नहीं कर सकती कि देश में ऐसे हालात नहीं कि मलाला अपने घर-गांव लौट सके। नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा के बाद मलाला के इलाके के लोग खुश तो हुए, लेकिन वे अपनी खुशी का इजहार बढ़-चढ़कर नहीं कर सके। उन्हें भय था कि कहीं आतंकी बुरा न मान जाएं। मलाला को नोबेल सम्मान मिलने पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा कि यह पाकिस्तान के लिए गर्व की बात है, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं कह सके कि मलाला चाहे तो पाकिस्तान लौट सकती है। शायद यह संभव भी नहीं, क्योंकि आतंकी संगठन जमात उल अहरार ने मलाला को पश्चिम का एजेंट करार दिया है।
नोबेल पुरस्कार चयन समिति ने कैलाश और मलाला को शांति पुरस्कार देते हुए जिस तरह उनके हिंदू-मुस्लिम होने का जिक्र किया उस पर पहले ही एतराज जताया जा चुका है। एतराज का एक अन्य आधार इस समिति की यह टिप्पणी है कि दोनों देश संयुक्त रूप से शिक्षा के लिए और अतिवाद के खिलाफ संघर्ष करें। इससे दुनिया को यह संदेश जा सकता है कि लड़कियों की शिक्षा के मामले में पाकिस्तान जैसे हालात भारत में भी हैं। ऐसे किसी संदेश को प्रचारित-प्रसारित होने से रोका जाना चाहिए। नि:संदेह भारत और पाक में बहुत कुछ साझा और एक जैसा है। यह भी कहा जा सकता है कि बच्चों की शिक्षा के मामले में दोनों देश एक जैसी समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन भारत में वैसी हालत अर्थात अतिवाद हर्गिज नहीं है जिससे मलाला सरीखी लड़कियों को दो-चार होना पड़ा। भारत की तो एक बड़ी समस्या यही है कि वह पाकिस्तान में पाले-पोसे जा रहे अतिवाद से त्रस्त है। इसका एक बड़ा कारण पाकिस्तान में अतिवाद यानी आतंकवाद को सरकारी स्तर पर मिल रहा सहयोग-समर्थन है। नोबेल पुरस्कार चयन समिति ने जाने-अनजाने भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में उस योजक चिह्न यानी हाइफन को फिर से गाढ़ा कर दिया है जिससे भारत मुक्त होना चाह रहा है। भारत और पाकिस्तान में बहुत कुछ साझा होने के बावजूद भारत पाकिस्तान जैसा नहीं है और कम से कम अतिवाद अर्थात आतंकवाद के मामले में तो बिल्कुल भी नहीं।
सभी को स्मरण होगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश इस तथ्य से चौंके थे कि भारत में पाकिस्तान से ज्यादा मुस्लिम हैं, फिर भी उनमें से कोई अल कायदा से नहीं जुड़ा है। उन्होंने मनमोहन सिंह का व्हाइट हाउस में स्वागत करते हुए यह कहना पसंद किया था-ये उस देश के शासनाध्यक्ष हैं जो मुस्लिम आबादी की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है और फिर भी इनके देश का कोई नागरिक अल कायदा का सदस्य नहीं है। यह बात नोबेल पुरस्कार चयन समिति को भी पता होनी चाहिए थी। दरअसल यह वह बात है जिसे पूरी दुनिया को जानने की जरूरत है, क्योंकि जब यह सामने आ रहा है कि आस्ट्रिया, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों के मुस्लिम युवा सैकड़ों की संख्या में अल कायदा से भी खूंखार आतंकी संगठन आइएसआइएस से जा मिले हैं तब भारत के ऐसे युवाओं की संख्या मुश्किल से 10-12 है। शायद यही कारण रहा कि अल कायदा की ओर से दक्षिण एशिया में अपनी तथाकथित आतंकी दुकान खोले जाने की घोषणा के जवाब में भारतीय प्रधानमंत्री सगर्व यह कह सके कि भारतीय मुसलमान अल कायदा को फेल कर देगा। यह भरोसा पूरे देश को भी होना चाहिए और इसके बावजूद कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के साथ-साथ वहां फल-फूल रहे किस्म-किस्म के तमाम आतंकी संगठन भारत में मुस्लिम युवाओं को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। इंडियन मुजाहिदीन दम तोड़ रहा है तो इसका बड़ा कारण भारतीय खुफिया एजेंसियों की मुस्तैदी के साथ-साथ यह भी है कि भारत के युवा मुस्लिम भटकने से इन्कार कर रहे हैं। बेहतर हो कि नोबेल पुरस्कार चयन समिति अपनी उस टिप्पणी को दुरुस्त करे जिसमें उसने यह कहा कि दोनों देश अतिवाद के खिलाफ साझा संघर्ष करें।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
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नागरिक समाज की शक्ति

Sat, 18 Oct 2014 

कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद सिविल सोसायटी की महत्ता फिर से स्थापित होने की उम्मीद कर रहे हैं सुधांशु रंजन
बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की घोषणा के बाद जो खबरें मीडिया में आई हैं उन पर विचार करने की जरूरत है। पहली खबर यह है कि अधिकतर लोग यह नहीं जानते थे कि यह व्यक्ति कौन है। मैं व्यक्तिगत बातचीत के आधार पर कह सकता हूं कि ऐसा पूछने वालों में कई प्रख्यात बुद्धिजीवी एवं विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक हैं। तो क्या यह उनकी अनभिज्ञता है, जो उनके बुद्धिजीवी होने पर सवाल खड़े करती है? यह सवाल दरअसल मीडिया की भूमिका पर है जिसे राजनेताओं, फिल्मी कलाकारों तथा क्रिकेट खिलाड़ियों के चेहरे दिखाने और उनके बारे में समाचार देने से फुर्सत ही नहीं है।
जहां किसी राजनीतिक दल का एक छोटा-मोटा नेता या प्रवक्ता भी रोज टीवी पर बैठा मिल जाएगा और अखबारों के प्रथम पृष्ठ पर फोटो सहित उसके बयान होंगे, वहीं नागरिक समाज के प्रतिनिधियों की घनघोर उपेक्षा होती है। यहीं दूसरा सवाल है कि नागरिक समाज की भूमिका आखिर है क्या समाज या राष्ट्र निर्माण में? तीसरा सवाल है नोबेल पुरस्कार की निष्पक्षता को लेकर।
जहां तक सिविल सोसायटी का सवाल है, यह निर्विवाद है कि केवल सरकार सभी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। भारत एक नायाब मुल्क है जिसने नागरिक समाज की महत्ता को सबसे पहले पहचाना। सैद्धांतिक रूप से हॉब्स, लॉक एवं रूसो ने राज्य की उत्पत्ति का आधार सामाजिक अनुबंध को माना। रूसो ने जनरल विल की बात कही, हालांकि उसे उन्होंने स्पष्टता से परिभाषित नहीं किया। तीनों विचारक यह मानते थे कि जनता की सहमति के बिना बनाया गया राज्य अवैध है। जहां हॉब्स ने राज्य निर्माण के बाद सारे अधिकार राज्य को दे दिए और नागरिकों को अधिकारहीन कर दिया वहीं रूसो एवं लॉक ने नागरिकों को असहमति एवं विद्रोह का अधिकार दिया। यहीं नागरिक समाज की भूमिका आती हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल ने तो हरेक व्यक्ति को विरोध करने का अधिकार दिया यदि किसी मुद्दे पर उसकी असहमति है। महात्मा गांधी तो इसमें मिल से भी आगे निकल गए। उनका मानना था कि यदि किसी मुद्दे पर किसी को असहमति है तो विरोध करना न केवल उसका अधिकार है, बल्कि कर्तव्य भी है। महात्मा गांधी सिविल सोसायटी की महत्ता को समझते थे। इसलिए वे विश्व के पहले नेता निकले जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम का सफल नेतृत्व करने के बाद भी सत्ता के शीर्ष पर बैठना पसंद नहीं किया। उनका भरोसा लोकशक्ति पर था। इसी दर्शन को आगे बढ़ाया लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जिन्होंने अपने को सत्ता से अलग रखा।
उनका मत था कि राजसत्ता पर लोकसत्ता का नियंत्रण होना चाहिए। दादा धर्माधिकारी ने मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री बनने से इन्कार कर दिया। कृष्ण दास जाजू को सरदार पटेल ने केंद्र में वित्तमंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया। वह चरखा संघ के अध्यक्ष थे। उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वित्त मंत्री का काम करने के लिए बहुत लोग मिल जाएंगे, परंतु चरखे का काम करने वाला कोई नहीं मिलेगा। इसी तरह गांधीवादी अर्थशास्त्री जेई सी कुमारप्पा ने सांसद या मंत्री बनने से इन्कार कर दिया, क्योंकि उनकी नजर में एक मजबूत राष्ट्र बनाने में सामाजिक कार्यकर्ताओं की निर्णायक भूमिका हैं।
1 फरवरी 1948 को एक लेख में कुमारप्पा ने लिखा, 'सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ताओं का गुट सरकार को निर्देश एवं दिशा देगा अपने उदाहरणों से।' यह लेख गांधीजी की एक छोटी टिप्पणी (पुनश्च) के साथ छपा था जिसमें उन्होंने लिखा, 'यह बहुत आकर्षक है। लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि हमारे पास नि:स्वार्थ कार्यकर्ताओं की जरूरी संख्या नहीं है जो अपने बारे में अच्छा हिसाब देने में सक्षम हों।' इसके छह दिनों बाद उनकी हत्या हो गई। यह सर्वविदित है कि गांधी कांग्रेस को विघटित कर लोकसेवक संघ बनाना चाहते थे। वह इसका मसौदा तैयार करने वाले थे, किंतु उनकी हत्या हो गई। यदि गांधी-जेपी अथवा कुमारप्पा का सपना साकार रूप ले पाता तो सरकार के ऊपर नागरिक समाज का जबर्दस्त दबदबा होता और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए लोकपाल/लोकायुक्त की आवश्यकता नहीं होती। इस मायने में कैलाश सत्यार्थी का चयन महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे नागरिक समाज को बल मिलेगा। हालांकि बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ता उनके चयन पर सवाल खड़ा कर रहे हैं, जो स्वाभाविक है। ऐसा अकसर होता है। इसमें प्रतिद्वंद्विता एवं ईष्र्या का तत्व भी हो सकता है। परंतु एक सवाल उठता है। कैलाश सत्यार्थी के प्रशस्ति पत्र में लिखा गया है कि वह गांधी के मार्ग पर चलें। ऐसा कर नोबेल कमेटी ने गांधी को यह सम्मान न देने की भूल को स्वीकार किया है। पहले भी उसने स्वीकार किया कि गांधी को पुरस्कार न देना सबसे बड़ी चूक थी। परंतु सवाल है कि इसमें इतना विलंब क्यों हुआ?
विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण को नोबेल मिलना चाहिए था। जिस देश में अधिकतर हत्याएं जमीन के लिए होती हैं वहां विनोबा ने लाखों एकड़ जमीन भूमिहीनों के लिए दान में ले ली। वह भू-स्वामियों को कहते थे, 'मैं आपको प्यार से लूटने आया हूं।' भूदान एक राष्ट्रीय जनांदोलन बन गया था। इसी प्रकार जेपी ने 1974-75 में अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसकी परिणति मार्च 1977 में पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन के रूप में हुई। यह विश्व की एक अनोखी घटना थी कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में खून का एक कतरा बहे बिना सत्ता परिवर्तन हुआ। इस सत्ता परिवर्तन ने देश में लोकतंत्र को बहाल कर दिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्यार्थी को मिलने वाला सम्मान सिविल सोसायटी को मजबूत बनाएगा। यह इसलिए भी उत्साहव‌र्द्धक है, क्योंकि सत्यार्थी एक मामूली परिवार से आते हैं, हिंदी बोलते हैं और आचार-व्यवहार से पूरी तरह देसी हैं। बाल अधिकार की समस्या को अब ज्यादा गंभीरता से लिया जाएगा, क्योंकि एक नोबेल पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति की आवाज सुनी जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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बचपन बचाना है

Sun, 19 Oct 2014

बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। इसी बाल रूप को संवार और सहेज कर ही कोई बुलंदियों को छू सकता है। हाल ही में बाल मजदूरी के खिलाफ काम करने के चलते कैलाश सत्यार्थी को मिले शांति के नोबेल पुरस्कार पर हम भले ही गौरवान्वित और जश्न मना रहे हों, लेकिन इस सम्मान का दूसरा पहलू ज्यादा चिंताजनक है। इस सम्मान ने आजादी के पैंसठ साल बाद भारतीय समाज का वह कुत्सित चेहरा दिखाया है जिसकी चमक-दमक के पीछे बाल मजदूरी की सिसकियां छिपी हुई हैं। बाल मजदूरी सभ्य समाज के माथे का कलंक है। तमाम नियम-कानूनों के बाद भी अगर आज तक हम इसे खत्म नहीं कर पाए तो इसके पीछे जरूर हमारी खराब नीतियां रही हैं। लिहाजा यह समय आत्म अवलोकन करने का है कि चूक कहां हो रही हैं। शिक्षा के अधिकार के बाद भी हम बच्चों को स्कूल भेजने में क्यों नहीं सक्षम हो पा रहे हैं। विगत कुछ वर्षो में 80 हजार के करीब बच्चों को मजदूरी के दलदल से निकालने वाले कैलाश सत्यार्थी को मिले इस सम्मान ने हमारी जिम्मेदारियों और दायित्वों को बढ़ा दिया है। ऐसे में कुछ सालों में दुनिया में अपना डंका बजाने की हसरत पालने वाले भारत देश से बाल मजदूरी नामक धब्बे को समूल खत्म करने की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या कैलाश सत्यार्थी को नोबेल मिलने से देश में बाल श्रम की समस्या सुधरेगी?
हां 59 फीसद
नहीं 41 फीसद
क्या हम भारतीय बच्चों के अधिकार को लेकर वाकई गंभीर हैं?
हां 55 फीसद
नहीं 45 फीसद
कैलाश जी को नोबेल पुरस्कार मिलने से सभी लोगों का ध्यान इस पर गया है। लोगों में बालश्रम की समस्या को लेकर जागरुकता आई है इससे प्रेरित होकर बालश्रम की समस्या से जुड़ी हुई संस्थाओं को भी आत्मबल मिलेगा और वह समाज के अन्य लोगों को भी इस समस्या से मुक्ति दिलाएगा। -अखिलेश कुमार
हम बच्चों के अधिकारों को लेकर गंभीर नहीं हैं, आज भी लाखों बच्चे जमीन पर आसमान के नीचे भूखे सो जाते हैं। उनकी शिक्षा पर भी ध्यान नहीं दिया जाता, यह सभी बातें हमारे संज्ञान में हैं फिर भी हम इसे लेकर चिंतित नहीं हैं। -अमिताभ श्रीवास्तव
लोगों में जागरुकता लाने के लिए हमें ऐसे आयोजनों को बढ़ावा देना होगा जो लोगों का ध्यान इस मुद्दे पर खींचे। किसी एक की पहल से यह समस्या नहीं सुलझेगी, हम सबको आगे बढ़ना होगा। -आरती वर्मा
हम भारतीय आहिस्ता-आहिस्ता संवेदनशून्य होते जा रहे हैं। बच्चों के अधिकारों या किसी भी मामले में गंभीर होने के लिए जागरुकता बहुत जरूरी है। -रोहराभारती@जीमेल.कॉम
नोबेल मिलने से समस्या का समाधान होता तो अब तक किसी क्षेत्र में समस्या नहीं होती। क्योंकि समस्या पैदा करने वाले लाखों हैं और सुधार करने वाला कोई एक। -आरुषि243654@जीमेल.कॉम
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अंधकारमय भविष्य

Sun, 19 Oct 2014 

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन [आइएलओ] के अनुसार जब बच्चों को किसी ऐसे कार्य को करने पर विवश होना पड़ता है जो उनसे उनका बचपना छीन लेता हो, नियमित रूप से उनके स्कूल जाने की क्षमता में बाधक बनता हो और जो मानसिक, शारीरिक, सामाजिक या नैतिक रूप से खतरनाक और नुकसानदेह हो, ऐसे कार्यो को करने वाले बच्चों को बाल मजदूर कहा जाता है।
संख्या देश में
2001 की जनगणना के अनुसार 5-14 साल आयु वर्ग के 1.26 करोड़ बच्चे बाल मजदूर थे, लेकिन 2011 की जनगणना में इनकी संख्या 43.53 रह गई है। हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह संख्या वास्तविक संख्या से काफी कम है।
परदेस में
* 2000 से बाल मजदूरों की संख्या में एक तिहाई की कमी आई है। 24.60 करोड़ से घटकर 16.68 करोड़ रह चुकी है। कुल संख्या के आधे से अधिक यानी करीब 8.5 करोड़ बच्चे खतरनाक कार्यो से जुड़े हुए हैं।
* एशिया और प्रशांत क्षेत्र में बाल मजदूरों की संख्या सर्वाधिक है। 7.8 करोड़ या कुल बच्चों की संख्या का 9.3 फीसद। उप सहारा अफ्रीका में बाल मजदूरी के सर्वाधिक मामले हैं। 5.9 करोड़ यानी 21 फीसद से अधिक
* लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों में 1.3 करोड़ जबकि मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में 92 लाख (8.4 फीसद) है।
* कृषि लगातार ऐसा क्षेत्र रहा है जिससे सर्वाधिक बाल मजदूर (9.8 करोड़ या 59 फीसद) जुड़े हैं। हालांकि सेवा क्षेत्र में भी 5.4 करोड़ और असंगठित क्षेत्र के उद्योगों में 1.20 करोड़ बच्चे काम कर रहे हैं।
* साल 2000 से बालिकाओं में बाल श्रम में 40 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है जबकि इसी समयावधि में बालकों में यह गिरावट महज 25 फीसद रही है।
समस्या:
तमाम कानूनों और मानकों के बावजूद दुनिया में बाल श्रम की उपस्थिति आदमियत के नाम पर किसी कलंक से कम नहीं है। हालांकि इस सामाजिक कलंक में उत्तरोत्तर किंतु धीमा सुधार जारी हो रहा है, लेकिन कई कारकों का जब तक जड़ खात्मा नहीं होता, इस पर त्वरित लगाम लगाना असंभव है।
गरीबी और बेरोजगारी का उच्च स्तर:
गरीब परिवार हालात को सुधारने के लिए बच्चों को स्कूल भेजने की बजाय काम पर भेजने को वरीयता देते हैं। ये बच्चे उनकी मूल जरूरतों को पूरा करने का साधन बन जाते हैं। दुनिया के एक चौथाई लोग अति गरीबी के शिकार हैं। अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका के हिस्सों में व्याप्त अति गरीबी के चलते यहां के अधिकतर लड़के रोजी-रोटी के जुगाड़ में बाल मजदूर बन जाते हैं।
अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा का दायरा सीमित:
2006 में करीब 7.5 करोड़ बच्चे स्कूल जाने से महरूम थे। 2009 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के सभी बच्चों को सार्वभौमिक शिक्षा मुहैया कराने की लागत 10-30 अरब डॉलर है। देखने में भले ही यह भारी-भरकम राशि लगती हो, लेकिन लागत सालाना वैश्रि्वक मिलिट्री खर्च का महज 0.7-2.0 फीसद ही है।
मौजूदा कानूनों का उल्लंघन:
बाल मजदूरी के खिलाफ भले ही तमाम नियम, कानून और संहिताएं मौजूद हों, लेकिन इनका खुला उल्लंघन सरेआम देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात उत्पादों के उत्पादन और आउटसोर्सिग में कई चरण शामिल होते हैं। इसके चलते यह पता करना मुश्किल हो जाता है कि पूरी प्रक्रिया में कहां पर कैसा श्रम काम कर रहा है। इनसे जुड़े कुछ हिस्से का काम ठेकेदारों से कराए जाते हैं जो इरादतन या गैरइरादतन बाल श्रम के इस्तेमाल को छुपाते हैं।
कानूनों का अमल अपर्याप्त:
विश्व में बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए जितने कानून कायदे हैं या तो उन्हें ढंग से लागू नहीं किया जाता है या फिर वे दुरुस्त नहीं हैं। इसके चलते ही कृषि, घरेलू कार्य जैसे क्षेत्रों में बाल मजदूरी मौजूद है। कई देशों में सख्त कानून तो हैं लेकिन उनके श्रम विभाग और श्रम निरीक्षण कार्यालयों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं उपलब्ध होते हैं। वहां की अदालतें उन कानूनों को लागू कराने में विफल रहती हैं।
लचर कानून:
कई देश ऐसे कानून बना देते हैं जिसमें दोषियों के बच निकलने की पूरी गुंजायश होती है।
नेपाल: यहां अधिकांश कामों के लिए न्यूनतम 14 साल आयु सीमा निर्धारित है। पौधरोपण और ईट भट्टे को बाल श्रम से मुक्त रखा गया है।
केन्या: औद्योगिक कामों के लिए 16 साल से कम आयु के बच्चों पर प्रतिबंध है लेकिन कृषि को इससे मुक्त रखा गया है।
बांग्लादेश: किसी भी काम के लिए एक निर्धारित आयुसीमा है लेकिन घरेलू काम और खेती-बाड़ी से जुड़े कामों पर यह लागू नहीं होती है।
अन्य कारक: बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के कई देशों में अपना विस्तार करती हैं। लिहाजा रोजगार, निवेश और उद्योग के लिए देशों में प्रतिस्पर्धा मची रहती है। अंतरराष्ट्रीय मानकों को पाने के लिए कई बार सरकारों और कंपनियों द्वारा कम लागत वाले श्रम को बढ़ावा दिए जाने के क्त्रम में बाल श्रम सुधार की गति मंद पड़ जाती है।
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संवैधानिक उपाय

Sun, 19 Oct 2014

संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों में बाल श्रम के खिलाफ कई विधान किए गए हैं:
अनुच्छेद 24: कारखानों आदि में बालकों के नियोजन पर रोक: 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य खतरनाक काम में नहीं लगाया जाएगा।
अनुच्छेद 21 (ए): शिक्षा का अधिकार: राज्य छह वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले सभी बच्चों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रबंध करेगा।
अनुच्छेद 39 (ई): पुरुष और स्त्री कामगारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों
अनुच्छेद 39 (एफ): बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाएं और बालकों एवं अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।
अनुच्छेद 45: बालकों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध: राच्य इस संविधान के प्रारंभ से 10 वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा।
सरकारी प्रयास
बाल श्रम के मसले पर केंद्र और राच्य सरकारें दोनों ही कानून बना सकती हैं। दोनों ही स्तरों पर ऐसे कई विधायी प्रयास किए गए हैं। कुछ महत्वपूर्ण विधानों पर एक नजर:
बाल श्रम (प्रतिषेध और नियमन) एक्ट, 1986: इस एक्ट में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को उन 16 पेशों और 65 प्रक्रियाओं में रोजगार पर पाबंदी लगाई गई है, जो बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए खतरा बन सकते हैं। अक्टूबर, 2006 में सरकार ने घरेलू सेक्टर और सड़क किनारे ढाबों और सरायों में बच्चों के काम करने को भी खतरनाक व्यवसायों की प्रतिबंधित सूची में डाल दिया। सितंबर, 2008 में अत्यधिक ताप या शीत, यांत्रिक ढंग से मछली पकड़ना, गोदाम, पेंसिल उद्योग, पत्थरों की घिसाई जैसे व्यवसायों और प्रक्रियाओं को प्रतिबंधित सूची में डाल दिया।
फैक्ट्रीज एक्ट, 1948: एक्ट 14 साल से कम उम्र के बच्चों के नियोजन पर प्रतिबंध लगाता है। 15-18 साल के किशोर को तभी किसी फैक्टरी में रोजगार मिल सकता है जब वह सक्षम मेडिकल डॉक्टर प्राधिकारी से फिटनेस संबंधी प्रमाणपत्र प्राप्त कर ले। इस एक्ट में 14-18 साल के किशोरों को रोज साढ़े चार घंटे के काम का ही प्रावधान करते हुए उनको रात के घंटों में काम करने से प्रतिबंधित किया गया है
खदान एक्ट (1952): 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खदान में काम करने से प्रतिबंधित करता है। खदान का समुचित ढंग से निरीक्षण करने के बाद 16 वर्ष की आयु से अधिक किशोर को अप्रेंटिस की अनुमति दी जा सकती है।
जुवेनाइल जस्टिस (केयर एवं प्रोटेक्शन) ऑफ चिल्ड्रेन एक्ट, 2000: बच्चों के अधिकारों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र समझौते के अनुरूप इस एक्ट में 2002 में संशोधन किया गया। इसके जरिये 18 साल से कम उम्र के किशोरों को सुरक्षा प्रदान की गई है। एक्ट के सेक्शन 26 में कामगार किशोर और बच्चों को शोषण से बचाने के उपाय किए गए हैं। इसके तहत यदि कोई नियोक्ता बच्चे या किशोर को बंधुआ रखते हुए उसकी आय को अपने पास रख लेता है या उसको जोखिम भरे काम में लगाता है तो उस नियोक्ता को तीन साल के कारावास और जुर्माने की सजा हो सकती है। महाराष्ट्र और कर्नाटक में इस प्रावधान का सबसे प्रभावी ढंग से उपयोग करते हुए ऐसे कई लोगों को दंडित किया है जो अन्य एक्ट में बच निकलते थे। बड़ी संख्या में ऐसे बच्चों को सहायता पहुंचाने के साथ पुनर्वास किया गया है।
न्यूनतम मजदूरी एक्ट, 1948:
सभी कर्मचारियों के लिए न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान किया गया है। बाल श्रम से लड़ने में बेहद प्रभावी माना गया है।
निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा बच्चों का अधिकार एक्ट, 2009: 6-14 साल के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। इसमें प्रत्येक प्राइवेट स्कूल में 25 प्रतिशत सीटें वंचित तबके और अशक्त बच्चों के लिए आवंटित करने का भी प्रावधान है।
न्यायिक हस्तक्षेप
एमसी मेहता केस (1996):
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राच्य सरकारों को निर्देश देते हुए जोखिम भरे कार्यो और गतिविधियों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करते हुए उनको ऐसे कार्यो से मुक्त कराते हुए गुणवत्तापरक शिक्षा उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे। कोर्ट ने बाल श्रम एक्ट का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं के अंशदान से उनके लिए पुनर्वास से संबंधित कल्याणकारी फंड बनाने का भी निर्देश दिया था।
उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राच्य (1993): सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि 14 साल तक के सभी बच्चों को निशुल्क शिक्षा पाने का अधिकार है। संविधान में शामिल किया गया अनुच्छेद 21(ए) में वह भावना झलकती है।
पहल
इस बार के शीतकालीन सत्र में दिसंबर, 2012 से लंबित बाल श्रम (प्रतिषेध एवं नियमन) संशोधन (सीएलपीआरए) बिल पेश किया जाएगा। इस बिल में पहली बार 14 साल की आयु तक के बच्चों के किसी भी प्रकार के नियोजन पर पाबंदी लगाई गई है। निशुल्क एवं अनिवार्य बच्चों का अधिकार एक्ट, 2009 के साथ तालमेल बिठाने के लिए इस बिल को पेश किया जाएगा। इस बिल में 14-18 साल के किशोरों के जोखिम भरे नियोजन पर पाबंदी का भी प्रावधान किया गया है। यह बिल किशोरों के कार्य करने की दशाओं और आडियो विजुअल इंटरटेनमेंट उद्योग में काम करने वाले बच्चों की दशाओं का नियमन करेगा।
अंतरराष्ट्रीय कानून
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) ने बाल श्रम के खिलाफ प्रमुख रूप से दो कंवेंशन (समझौते)विकसित किए हैं। दुनिया के अधिकांश देशों ने उस पर हस्ताक्षर भी किए हैं:
रोजगार के लिए न्यूनतम आयु, 1973 (कंवेंशन नंबर 138):
इस कंवेंशन को अंगीकार करने वाले देशों ने बाल श्रम को रोकने का कानूनी वादा किया है और सुनिश्चित किया है कि 'न्यूनतम आयु' से कम उम्र के बच्चों को नियोजित नहीं किया जाएगा। 2010 के अंत तक इस कंवेंशन पर आइएलओ के 183 सदस्यों में से 156 ने हस्ताक्षर किए।
बाल श्रम का सबसे खराब स्वरूप, 1999 (कंवेंशन नंबर 182):
इसमें बाल श्रम के सबसे खराब रूप से सुरक्षा के मसले को आपात की स्थिति में रखते हुए तत्काल और प्रभावी उपाय उठाने के लिए कहा गया है। 2010 के अंत तक इस कंवेंशन को 173 देशों ने अंगीकार किया है।
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सरकार के साथ समाज भी आए आगे

Sun, 19 Oct 2014

बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कायदे-कानून की लंबी फेहरिस्त बना दी गई लेकिन बावजूद इसके कभी दक्षिणी दिल्ली में फलक तस्करी की शिकार होती है तो कभी गांधी नगर में गुड़िया सामूहिक दुष्कर्म का दंश झेलती है, मासूम जाह्ववी इंडिया गेट पर भी सुरक्षित नहीं। कभी स्नेह, तो कभी प्यार के नाम पर बच्चों का यौन शोषण किया जा रहा है। कई मामलों में तो नामी-गिरामी तबके को लोगों तक ने स्वीकार किया है कि बचपन में वे शोषण के शिकार हुए। बच्चों के प्रति यौन शोषण रोकने एवं अधिकारों के हितों की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक शख्स बच्चों के अधिकारों एवं अपराध रोकने के लिए बनाए गए नियम कानूनों को भी जानें। बच्चों के अधिकारों के लिए स्थापित दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग के चेयरपर्सन अरुण माथुर से बात की संवाददाता संजीव कुमार मिश्र ने। प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंश:
बच्चों के संवैधानिक अधिकार क्या है?
जिस किसी की उम्र 18 वर्ष से कम है वह बालक कहलाता है। भारत ने 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों को एक अलग कानूनी अंग के रूप में स्वीकार किया है। क्योंकि भारत में 18 वर्ष की उम्र के बाद ही कोई व्यक्ति वोट डाल सकता, ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त कर सकता या किसी अन्य कानूनी समझौते में शामिल हो सकता है। यदि किसी व्यक्ति की उम्र 18 वर्ष से कम है और उसका विवाह कर दिया गया है और उसका भी बच्चा है तो उसे भी अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार बालक ही माना जाएगा।
बच्चों के साथ किस तरह के अपराध सामने आते हैं।
आमतौर पर डीसीपीसीआर में स्कूल में दाखिला ना होने से लेकर, स्कूल में मारपीट, खेलने के लिए पार्क नहीं होने से लेकर लैंगिक भेदभाव, जातीय भेदभाव, अपंगता, महिला भ्रूण हत्या, शिशु हत्या, घरेलू हिंसा, बाल यौन दु‌र्व्यवहार, बाल-विवाह, बाल-श्रम, बाल-वेश्यावृत्ति, बाल-व्यापार, बाल-बलि, स्कूलों में शारीरिक दंड, परीक्षा-दबाव एवं छात्रों द्वारा आत्महत्या, प्राकृतिक आपदा, युद्ध एवं संघर्ष में प्रभावित।
बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए किस तरह के कदम उठाए गए हैं?
सरकार द्वारा बच्चों की सुरक्षा एवं उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप में सहयोग दिया जा रहा है। 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाए जाने को भी प्रयत्‍‌न के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। इसके अलावा बच्चों के विकास को लक्ष्य मानते हुए कई योजनाएं शुरू की गई है। जो विभिन्न विभागों द्वारा संचालित की जाती है।
इस दिशा में देश के नागरिकों को क्या करना चाहिए?
सबसे पहले तो नागरिकों को अपना दायित्व समझना होगा। सभी को प्रण करना होगा कि हम बाल अधिकारों का हनन ना होने देंगे ना ही खुद करेंगे। अधिकतर मामलों में हिंसा घर के अंदर ही होती है। जानने वाले, रिश्तेदार ही बच्चों का शोषण करते है। लोगों को व्यक्तिगत स्तर पर प्रयत्न करना चाहिए। लोगों को बाल श्रम, मानव तस्करी, बच्चों के प्रति अपराध देखकर चुप नहीं रहना चाहिए। स्कूल, घर, रिश्तेदारी, अस्पताल, पुलिस स्टेशन में ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि बच्चे डरे, सहमें नहीं।
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बचपन केंद्रित हो विकास

Sun, 19 Oct 2014

हमारे देश में बच्चों के साथ होने वाले अत्याचारों, अपराधों, शोषण और यातनाओं की अनगिनत घटनाएं रोज घटती हैं। जिसमें बच्चों की खरीदफरोख्त पूरी दुनिया में नशीले पदाथरें और अवैध हथियारों के बाद काली कमाई का तीसरा सबसे बड़ा व्यापार बन चुका है। सस्ते श्रमिकों की बढ़ती मांग, गैर कानूनी तौर पर धड़ल्ले से चलने वाली प्लेसमेंट एजेंसियां, प्रशासनिक सुस्ती, भ्रष्टाचार आदि इसकी मुख्य वजहें हैं। गरीबी, बेरोजगारी, पिछड़ापन, विकास में क्षेत्रीय असंतुलन, अशिक्षा और अज्ञानता बाल दुव्र्यापार के अपराध को बढ़ाने में भी मददगार साबित होता है।
बाल दुव्र्यापार कानूनी अपराध के साथ-साथ एक सामाजिक बुराई, अमानवीय कृत्य और काले धन के उत्पादन का एक बड़ा जरिया है। इसके चलने से लाखों बच्चे आजादी, शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित रह जाते हैं। चूंकि बाल दुव्र्यापार के शिकार ज्यादातर बच्चे जबरिया बाल मजदूरी करने के लिए अभिशप्त होते हैं इसलिए मालिकों द्वारा उन्हें बहुत ही मामूली मजदूरी दी जाती है। सस्ते श्रमिक तथा निर्धारित कार्यावधि से अधिक समय तक बिना किसी प्रतिरोध के काम करने के कारण बच्चों को मालिकों द्वारा काम पर रखा जाता है। जिसके कारण वयस्क लोग बेरोजगार बने रह जाते हैं। गैर सरकारी संगठनों के मुताबिक देश में 5-6 करोड़ तथा सरकारी आंकड़ों के हिसाब से लगभग 44 लाख बच्चे भारत में बाल श्रमिक हैं। संख्या जो भी हो, लेकिन इस सच्चाई को कोई भी नहीं नकार सकता कि जिन करोड़ों बच्चों को स्कूलों में होना चाहिए वे खेत-खलिहानों, पत्थर खदानों, ईट भट्टों, कल-कारखानों, ढाबों, घरों, कोठियों, मनोरंजन स्थलों आदि जगहों पर बाल दुव्र्यापार के शिकार होकर अमानवीय हालात में रहते हुए दिन-रात काम करते हैं। आज देश में प्रति घंटे लगभग 10 बच्चे गायब हो रहे हैं। गुमशुदगी के मामले में बचपन बचाओ आंदोलन ने अपने अध्ययन और जुटाई गई सूचनाओं के आधार पर दिल्ली हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाए। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गंभीरता को देखते हुए सरकार को निर्देशित किया कि वह एक ठोस योजना व कार्यक्त्रम बना कर गुमशुदगी के अपराध को रोकें। इसके तहत प्राथमिकी दर्ज करने की अनिवार्यता, बच्चे को खोजने का काम, पुलिस में सरोकार व क्षमता बढ़ाने के लिए प्रयास आदि शामिल हैं।
ज्ञातव्य हो कि गुमशुदगी के शिकार बच्चे मूलत: बाल दुव्र्यापार के ही शिकार होते हैं। बाल दुव्र्यापार में छोटे-छोटे गिरोहों से लगाकर बड़े अपराधी गिरोह भी सक्त्रिय रहते हैं। इनका तंत्र ऊपर से लेकर नीचे तक तथा गांवों से लेकर शहरों तक फैला होता है। इनमें से कुछ लोग बच्चों को चुराकर या बहला-फुसला कर ले जाते हैं। दूसरे गिरोह उन्हें मजदूरी पर लगाने, वेश्यावृत्ति कराने, जबरिया विवाह या भीख मंगाने आदि के कामों में लगाते हैं। गरीब व पिछड़े इलाकों में ऐसे गिरोहों के स्थानीय एजेंट होते हैं जो पूरी व्यापक योजना के साथ बाल व्यापार के अपराध को अंजाम देते हैं तथा वहां से बच्चों को गायब कर बड़े कस्बों और शहरों में सक्रिय अपने सरगनाओं को सौंपते हैं। ज्यादातर अवैध प्लेसमेंट एजेंसियां इस अपराध में लिप्त हैं। बाल तस्करी के साथ-साथ बाल मजदूरी के अपराध को रोकने के लिए एक ओर जहां सख्त कानून होने चाहिए वहीं उनके पालन की जवाबदेही भी सरकारी महकमों और अधिकारियों पर होनी चाहिए। बाल कल्याण की योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अधिकतम कठोरता या शून्य सहिष्णुता का रवैया अपनाना होगा। बाल तस्करों, बंधुआ एवं बाल मजदूरी कराने वाले मालिकों और बच्चों के खिलाफ अपराधों में संलिप्त लोगों को त्वरित न्यायालयों के माध्यम से एक निश्चित समयावधि के अंदर सजा दी जाए। बाल मजदूरी, बाल विवाह, बच्चों से भीख मंगवाने आदि के खिलाफ व्यापक जन जागरण चलाया जाए और ऐसे व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए जो इन कार्यो में संलिप्त हैं।
तमाम अध्ययनों से साबित हो चुका है कि बाल मजदूरी गरीबी, वयस्क-बेरोजगारी, अशिक्षा और बीमारियों के साथ-साथ बच्चों की तस्करी जैसी समस्याओं को बढ़ावा देती है, साथ ही व्यक्तिगत विकास और देश की आर्थिक तरक्की के सबसे बड़ी बाधा है तो इसे जारी रखना भला कहां तक उचित है? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज की दुनिया का आर्थिक ढांचा सूचना, जानकारी और ज्ञान की आर्थिकी पर टिका है, लेकिन इसके बावजूद भी बाल दुव्र्यापार रोकने के प्रयासों में राजनीतिक इच्छाशक्ति और ईमानदारी के साथ-साथ दूरदर्शिता की जबर्दस्त कमी महसूस की जा रही है। बचपन केंद्रित विकास की दिशा में सामूहिक पहल आज की राष्ट्रीय जरूरत है। क्योंकि यही भविष्य केंद्रित विकास की बुनियाद है। आइये बाल श्रम मुक्त-बाल मित्र भारत के निर्माण की मुहिम में शामिल हों।
बाल मजदूरी के खिलाफ काम करने पर शांति का नोबेल मिलना बड़ी सफलता नहीं है। अभी दुनिया के करीब 16-17 करोड़ बच्चे मजदूरी के जाल में फंसे हुए हैं। उन्हें आजादी नहीं मिली है। पुरस्कार मिलने के बाद अब मैं दुनिया भर में बाल-मजदूरी की समस्या को खत्म करने में अपनी पूरी ताकत लगा दूंगा। मुझे पूरी सफलता तभी मिलेगी।
पुरस्कार के साथ ही मुझसे लोगों की उम्मीदें और बढ़ गई हैं। इसलिए अब मुझे शांत नहीं बैठना है। भारत में अब भी बाल मजदूरी और चाइल्ड ट्रैफकिंग बड़े स्तर पर हो रही है। करोड़ों बच्चे आज भी गुलामी कर रहे हैं। इनके लिए संघर्ष जारी रखना है। यह सम्मान उन बच्चों को मजबूती देगा। बच्चे ज्यादा आवाज नहीं उठा सकते हैं, इसके लिए हम सबको काम करना होगा।
[बचपन बचाओ आंदोलन के संस्थापक एवं नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी से बातचीत पर आधारित]
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बच्चों का भीख मांगना देश के लिए शर्मनाक

hursday February 06, 2014

अक्सर आपने बच्चों को भीख मांगते देखा होगा। कभी आप उन्हें कुछ दे भी देते होंगे, तो कभी डांटकर आगे बढ़ जाते होंगे। पर क्या कभी आपने यह सोचा है कि इन बच्चों की दुनिया कैसी है? इनके सपने क्या हैं? क्या ये भी अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जाना चाहते हैं? ये अपनी मर्जी से भीख मांगते हैं या इनसे जबरदस्ती भीख मंगवायी जाती है? भीख में मिले पैसों का ये क्या करते हैं? क्या कभी इन्होंने भीख मांगना छोड़कर कुछ और करने बारे में सोचा है? बड़े होकर ये क्या करेंगे? कुछ साल पहले मैंने बाल भिखारियों पर एक बड़ी स्टोरी की थी। उसकी रिसर्च के लिए मैंने उनके साथ कई दिन बिताये। शुरू में उन्हें मुझपर काफी शंका थी। डरे हुए भी थे... उन्हें लगा कि मैं पुलिस वाला या पुलिस का मुखबिर हूं या फिर किसी दूसरे इलाके का ‘दादा’, जो उन्हें बहकाकर या पटाकर अपने इलाके में ले जाना चाहता है। बहरहाल, उनसे मुझे बहुत सनसनीखेज जानकारियां मिली थीं। कुछ बच्चे चुराये हुए थे (उनका ऐसा ब्रेन वॉश किया जा चुका था कि उन्हें अपने घर या परिवार के बारे में याद तक नहीं था या वे जान-बूझकर बताना नहीं चाहते थे), कुछ घर से भागकर आये थे, कुछ अपने घर की गरीबी या पिता की शराबखोरी की वजह से भीख मांगने को मजबूर थे। एक बात सबमें समान थी कि वे भिखारी माफिया, जिसे वे ‘दादा’ कहते थे, से बहुत डरते थे। भीख मांगने के अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं था। मैंने एक एनजीओ की मदद से कुछ बाल भिखारियों को पढा़ने या किसी वोकेशनल कोर्स में दाखिल करवाने की कोशिश की, तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिये। कहा कि यह असंभव काम है, बाल भिखारियों को छोड़कर और किसी का भी पुनर्वसन किया जा सकता है! उसके बाद हर साल बाल भिखारियों की तादाद बढ़ती गई और इस बारे में कोई भी कुछ नहीं कर पाया। हाल में हॉलैंड से मेरे एक डच मित्र भारत घूमने आये। वह एक सप्ताह मुम्बई में रहे। जगह-जगह बाल भिखारियों को देखकर उन्होंने कहा कि आपकी सरकार बेहद गैर-जिम्मेदार और नागरिक असंवेदनशील हैं। अन्यथा देश के सबसे बड़े महानगर मुम्बई में इतने बाल भिखारी होने नहीं चाहिए।
मुझे उनकी बात एकदम सही लगी।
भारत के संविधान में भीख मांगने को अपराध कहा गया है। फिर देश की सड़कों पर एक करोड़ बच्चे भीख आखिर कैसे मांगते हैं? बच्चों का भीख मांगना केवल अपराध ही नहीं है, बल्कि देश की सामाजिक सुरक्षा के लिए खतरा भी है। हर साल कितने ही बच्चों को भीख मांगने के ‘धंधे’ में जबरन धकेला जाता है। ऐसे बच्चों के आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने की काफी आशंका होती है। बहुत से बच्चे मां-बाप से बिछड़कर या अगवा होकर बाल भिखारियों के चंगुल में पड़ जाते हैं। फिर उनका अपने परिवार से मिलना बेहद मुश्किल हो जाता है। पुलिस रेकॉर्ड के अनुसार, हर साल 44 हजार बच्चे गायब होते हैं। उनमें से एक चौथाई कभी नहीं मिलते। कुछ बच्चे किसी न किसी वजह से घर से भाग जाते हैं। कुछ को किसी न किसी वजह से उनके परिजन त्याग देते हैं। ऐसे कुल बच्चों की सही संख्या किसी को नहीं मालूम! ये तो पुलिस में दर्ज आंकड़े हैं। इनसे कई गुना केस तो पुलिस के पास पहुंचते ही नहीं। फिर भी, हर साल करीब 10 लाख बच्चों के अपने घरों से दूर होकर अपने परिजन से बिछड़ने का अंदेशा है। उन बच्चों में से काफी बच्चे भीख मंगवाने वाले गिरोहों के हाथों में पड़ जाते हैं। यानी हर साल हजारों गायब बच्चे भीख के धंधे में झोंक दिये जाते हैं। इन बच्चों का जीवन ऐसी अंधेरी सुरंग में कैद होकर रह जाता है, जिसका कोई दूसरा छोर नहीं होता। इनसे जीवन की सारी खुशियां छीन ली जाती हैं। भारत में ज्यादातर बाल भिखारी अपनी मर्जी से भीख नहीं मांगते। वे संगठित माफिया के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं। तमिलनाडु, केरल, बिहार, नई दिल्ली और ओडिशा में यह एक बड़ी समस्या है। हर आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों का ऐसा हश्र होता है। इन बच्चों के हाथों में स्कूल की किताबों की जगह भीख का कटोरा आ जाता है। बाल अधिकारों के ऐक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश का कहना है, ‘भारत में भीख माफिया बहुत बड़ा उद्योग है। इससे जुड़े लोगों पर कभी आंच नहीं आती। इस मामले में कानून बनाने वालों और कानून तोड़ने वालों की हमेशा मिलीभगत रहती है। इन हालात से निपटने के लिए सिस्टम को ज्यादा जवाबदारी निभानी चाहिए।’
भारत के मानवाधिकार आयोग की रपट के मुताबिक, हर साल जो हजारों बच्चे चुराये जाते हैं या लाखों बच्चे गायब हो जाते हैं, वे भीख मांगने के अलावा अवैध कारखानों में अवैध बाल मजदूर, घरों या दफ्तरों में नौकर, पॉर्न उद्योग, वेश्यावृत्ति, खाड़ी के देशों में ऊंट दौड़, अंग बेचने वाले माफिया, अवैध रूप से गोद लेने और जबरन बाल विवाह के जाल में फंस जाते हैं। कुछ लोग उन्हें बचाने की कोशिश भी करते हैं। हैदराबाद में 6 लोगों की एक टीम ने कई महीने की रिसर्च के बाद ऐसे बच्चों को बचाने की मुहिम शुरू की। उन्होंने देश भर के नागरिकों से आगे आकर बाल भिखारियों को बचाकर उन्हें उनका बचपन लौटाने की अपील की है। उन्होंने कहा है मुफ्त होस्टलों की लिस्ट सभी नागरिकों के पास होनी चाहए, ताकि वे जरूरतमंद बाल भिखारियों को वहां पहुंचाने का इंतजाम कर सकें। सभी से यह भी अपील की गई है कि वे बाल भिखारियों को भीख न दें। यह एक छोटी सी शुरूआत है। इसमें और भी लोग साथ आयेंगे, तो इस समस्या को खत्म भले ही न किया जा सके, कम तो जरूर किया जा सकता है। आज भारत एक युवा देश है। किसी युवा देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता बाल भिखारियों पर रोक लगाना होनी चाहिए। इसके लिए सामाजिक भागीदारी की जरूरत है। ऐसा करके ही स्थानीय, राज्यों और केंद्र की सरकारों पर दबाव डाला जा सकेगा... और सामाजिक भागीदारी की बदौलत सरकारों पर बाल भिखारियों को रोकने के लिए दबाव डाला जा सकेगा। इस दबाव के कारण सरकारें अपने-अपने स्तर पर कार्रवाई करें, तो इस समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। समाज को सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर काम करना होगा। तब बाल भिखारियों के पुनर्वसन की जरूरत होगी। उनकी शिक्षा, सेहत और आर्थिक जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी निभानी होगी।





राजनीति का विज्ञापन

जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2014: सरकारी विज्ञापनों के पीछे बहुत बार राजनीतिक हित साधने की मंशा नजर आती है। अलबत्ता कुछ विज्ञापन जरूरी कहे जा सकते हैं। मसलन, किसी अहम मसले पर जरूरी जानकारी देने या जन-जागरूकता फैलाने के मकसद से दिए जाने वाले विज्ञापन। एड्स से बचाव और सड़क दुर्घटनाएं रोकने के एहतियाती उपाय बताने वाले विज्ञापनों को इसके उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। इन पर शायद ही किसी को एतराज रहा हो। पर कई बार सरकारें ऐसे विज्ञापन जारी करती हैं, जो केवल सत्तारूढ़ दल को रास आते हैं। सत्ताधारी पार्टी के किसी दिवंगत नेता के जन्मदिन या पुण्यतिथि के अवसर पर या सरकारी योजनाओं और उपलब्धियों का बखान करने वाले विज्ञापन इसी तरह के होते हैं। विचित्र यह है कि इनमें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के साथ कई मंत्रियों, यहां तक कि सत्तारूढ़ पार्टी के दूसरे नेताओं के भी फोटो नजर आ जाते हैं।
ऐसे विज्ञापनों को सियासी प्रचार की शक्ल देने के इरादे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनाव नजदीक हों, तो इनके प्रकाशन और प्रसारण में तेजी आ जाती है। इसे सार्वजनिक पैसे का दुरुपयोग मानते हुए स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज और सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में मांग की गई थी कि सरकारी विज्ञापनों की बाबत दिशा-निर्देश तय किए जाएं। न्यायालय ने इसे विचार-योग्य माना और उसने करीब छह महीने पहले इस बाबत एक समिति गठित की।
शिक्षाविद एनआर माधव मेनन की अध्यक्षता में गठित की गई इस तीन सदस्यीय समिति ने सर्वोच्च अदालत को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कई अहम सिफारिशें की हैं। उसने ऐसे विज्ञापनों को राजनीति से दूर रखने के मकसद से सिर्फ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के नाम और तस्वीरें प्रकाशित करने पर जोर दिया है। निर्वाचन आयोग की आचार संहिता चुनाव की घोषणा के साथ लागू होती है। पर यह आम अनुभव रहा है कि चुनाव की घोषणा से पहले कुछ महीने तक ऐसे विज्ञापन आए दिन नमूदार होते हैं, जिनमें संबंधित सरकार की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटा गया होता है। जाहिर है, इसका मकसद मतदाताओं को सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में प्रभावित करना होता है। यह जनता के पैसे की बरबादी तो है ही, विपक्ष के प्रति नाइंसाफी भी है, क्योंकि यह समान अवसर के सिद्धांत से मेल नहीं खाता। इसलिए निर्वाचन आयोग ने सुझाया था कि चुनाव से छह माह पहले से ऐसे विज्ञापनों पर पाबंदी रहनी चाहिए। मेनन समिति ने आयोग के इस सुझाव का समर्थन किया है।
विज्ञापनों के अलावा सरकारें दूसरे तरीके भी आजमाती रही हैं। स्कूली बस्ते, राशन कार्ड से लेकर एंबुलेंस तक को वे अपने प्रचार का जरिया बनाने से नहीं चूकतीं। जब इस पर एतराज जताया जाता है तो सफाई दी जाती है कि लोगों के लिए सरकारी योजनाओं के बारे में जानना जरूरी है। मगर चुनाव से ऐन पहले इस पर खासा जोर क्यों रहता है? अगर लोगों को वास्तव में इन योजनाओं का लाभ मिल रहा है, तो उन्हें अलग से उपलब्धियां बताने की जरूरत क्यों होनी चाहिए? समिति ने यह भी कहा है कि अगर किसी महापुरुष की जयंती या पुण्यतिथि पर विज्ञापन जारी करना जरूरी लगे, तो एक ही विज्ञापन जारी किया जाए, न कि विभिन्न मंत्रालय अलग-अलग विज्ञापन जारी करें। मंत्रालयों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को विज्ञापन के मद में चाहे जितनी राशि खर्च करने की छूट न हो, एक निश्चित रकम आबंटित की जाए और उसके उपयोग की जांच नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक से कराई जाए। ये सुझाव स्वागत-योग्य हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये विधिवत दिशा-निर्देश का रूप ले सकेंगे।

सामाजिक न्याय का तंग दायरा




सामाजिक न्याय का तंग दायरा

जितेंद्र कुमार

जनसत्ता 29 सितंबर, 2014: अगस्त 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जिस सामाजिक न्याय का ताना-बाना बुना था, उसके बिखरने में बस चंद वर्ष लगे थे। सबसे पहले उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह जनता दल को तोड़ कर अलग हो गए और मंडल के सबसे अधिक प्रभाव वाले क्षेत्र बिहार में उसके दो प्रतापी नेताओं लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की जोड़ी चार साल बाद ही टूट गई थी। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही वक्त ने एक बार फिर करवट बदली और दोनों पिछड़े नेता ठीक चौबीस साल बाद अगस्त महीने में ही एकजुट होकर मंच पर विराजमान हुए। नतीजा असरकारी था- राज्य की दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव में छह सीटों पर इस जोड़ी ने जीत दर्ज की। चुनाव परिणाम से पहले दोनों नेताओं ने यह दोहराया कि अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव वे मिल कर लड़ेंगे।
जब 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी तो उसके कुछ समय बाद इससे भी बड़ी गोलबंदी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच हुई थी। वह गोलबंदी इतनी कारगर साबित हुई कि दोनों दलों ने मिल कर न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को हाशिये पर धकेल दिया था, बल्कि मुलायम सिंह यादव दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री भी बने थे। लेकिन अहं के टकराव और दूरदृष्टि की कमी’ की वजह से वह सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई और भाजपा फिर से सत्ता में लौट आई। उत्तर प्रदेश में फिर से सपा की सरकार है और बसपा विपक्षी पार्टी है, लेकिन मोदी का डर इतना सता रहा है कि सामाजिक न्याय खेमे के सभी सूरमा एक नए गठबंधन की जरूरत पर जोर देने लगे हैं।
पर कुछ सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं से पूछना लाजिमी हो जाता है। थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि राजद-जनता दल (एकी) गठबंधन को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो राज्य की जनता, खासकर उनके मतदाताओं को इससे क्या फायदा होगा? आखिर मंडल-दो की जुगलबंदी गरीबी, बेरोजगारी और जाति-व्यवस्था से पीड़ित अवाम के लिए कुछ लेकर भी आएगी? उनकी राजनीति से समाज इतना प्रभावित हुआ है कि आने वाले कई वर्षों तक बिहार और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी सवर्ण को मिलेगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन सामाजिक न्याय के अगुआओं ने सत्ता का दुरुपयोग जिस रूप में किया है उससे लगने लगा है कि सामाजिक न्याय का मतलब सिर्फ नेताओं, उनके बाल-बच्चों और रिश्तेदारों की सत्ता और प्रतिष्ठान में भागीदारी और राजकीय खजाने की लूट में हिस्सेदारी ही रह गया है।
बिहार और उत्तर प्रदेश में लगभग ढाई दशक से ‘सामाजिक न्याय’ की सरकारें रही हैं जिनका नेतृत्व पूरी तरह पिछड़ों और दलितों के हाथ में ही रहा है, भले ही किसी भी पार्टी की सरकार हो (उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के छोटे-से कार्यकाल को छोड़ दिया जाए तो)। बिहार में लालू-राबड़ी लगभग पंद्रह वर्षों तक सत्ता में रहे, जबकि पिछले नौ वर्षों से नीतीश कुमार वहां काबिज रहे हैं (लोकसभा चुनाव में भीषण पराजय के बाद नीतीश ने दलित समुदाय से आने वाले जीतन राम मांझी को राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया है)। जिन जातियों और सामाजिक गठबंधन के वोट से लालू-राबड़ी मुख्यमंत्री बने, वे मुख्य रूप से पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से आते थे। उनके पास न शिक्षा थी, न रोजगार था और न ही संसाधन थे। हां, जाति-व्यवस्था से बदहाली इतनी अधिक थी कि वे उस सामाजिक ताने-बाने में ठीक से सांस भी नहीं ले पाते थे।
लालू प्रसाद यादव ने 1990 में सत्ता संभालने के बाद सबसे बड़ी चुनौती उसी जाति-व्यवस्था को दी, जिससे दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक त्रस्त थे। कुछ सीमित अर्थों में कहा जाए तो उन्होंने सामाजिक जड़ता को जबर्दस्त झटका दिया था। अपने पंद्रह साल के शासनकाल में उन्होंने सांप्रदायिक ताकतों से जमकर लोहा लिया, जिसके चलते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कई कोशिशों के बावजूद राज्य में सांप्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं घटी। पर इसके अलावा लालू-राबड़ी के शासन में ऐसा कोई खास काम नहीं हुआ जिससे उनके मतदाता वर्ग को सामाजिक और आर्थिक लाभ पहुंचे।
हालांकि नीतीश कुमार का सामाजिक आधार बिल्कुल वही नहीं था जो लालू का था, लेकिन उनको मुख्यमंत्री बनाने में अति पिछड़ों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। नीतीश को सत्तासीन करने वाले समुदाय भी शैक्षिक सुविधाओं की कमी, बेरोजगारी और गरीबी से जूझ रहे थे। उनके लिए नए सोच के साथ न स्कूल खुले, न ही उन सरकारी स्कूलों को बचाने की कोशिश हुई जिनकीबदौलत वे भविष्य में बेहतर रोजगार पा सकते थे। इसके अलावा किसी नई योजना के तहत उनके लिए शिक्षा के अवसर भी नहीं मुहैया कराए गए। कुल मिलाकर बदहाल होती जा रही शिक्षा-व्यवस्था और भी बदहाल होती गई। यही हाल स्वास्थ्य के क्षेत्र में रहा। सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर अस्पताल में इलाज न करके उसी अहाते में अपने आवास पर निजी क्लीनिक चलाने लगे। स्वास्थ्य और शिक्षा, इन दोनों क्षेत्रों की हालत देख कर धनाढ्य और नवधनाढ्य लोगों ने इनमें सबसे ज्यादा पूंजी निवेश किया। अगर आकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले पच्चीस वर्षों में बिहार और उत्तर प्रदेश में सरकारी अस्पतालों और सरकारी स्कूलों से ज्यादा निजी अस्पताल और स्कूल खुले हैं।
सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं को प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहले स्कूलों और अस्पतालों को बचाना था, क्योंकि यही दोनों संस्थाएं हैं जिनसे दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों, अल्पसंख्यकों समेत सभी गरीबों का भविष्य संवरता है। लेकिन उन नेताओं की प्राथमिकता में ये दोनोें चीजें दूर-दूर तक नहीं रही हैं। सामाजिक न्याय के इन कर्णधारों की सबसे बड़ी परेशानी यह भी है कि वे हमेशा सवर्ण सत्ताधारी नेताओं की आंख मूंदकर नकल करते हैं। चूंकि सामाजिक न्याय से इतर के नेतृत्व ने सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों के समांतर निजी स्कूलों और अस्पतालों का जाल खड़ा कर दिया है और जिसका लाभ कोई भी संपन्न ले सकता है, इसलिए उनके लिए अब इन सरकारी संस्थानों का कोई मायने ही नहीं रह गया है। लेकिन जिन वर्गों या जातियों का प्रतिनिधित्व सामाजिक न्याय के नेतागण करते हैं उनके लिए तो सरकारी संस्थानों के अलावा दूसरा कोई रास्ता ही अभी तक तैयार नहीं हुआ है।
पिछले पच्चीस वर्षों के कृषि विकास को देखें तो आप पाएंगे कि कहीं-कहीं पैदावार में बढ़ोतरी जरूर हुई है, लेकिन अधिकतर किसान खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। खेती के घाटे का धंधा बनते जाने के कारण खेती पर निर्भर रहने वाले लोगों को अब रोजगार की तलाश में पहले से अधिक बाहर पलायन करना पड़ रहा है। मंडल-दो के दोनों महारथियों ने कभी भी अपने मतदाता वर्ग को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मसलों से जोड़ने का काम नहीं किया। फलस्वरूप जो मतदाता उनको वोट देते रहे, उनकी जिंदगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं आया।
जब लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया तो पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने बिना किसी का नाम लिए कहा था- ‘लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा परिवारवाद है, क्योंकि जब लगता है कि लोकतंत्र ठीक से चल रहा है तो तंत्र पर परिवार का कोई सदस्य आकर बैठ जाता है और लोकतंत्र कमजोर हो जाता है।’ शायद वीपी सिंह के कथन के पीछे उस समय की वही घटना रही होगी। सामाजिक न्याय के योद्धा येन केन प्रकारेण अपने राजनीति में अपने परिवार को स्थािपत करने में ही जुटे रहे हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार के सामाजिक न्याय के नेताओं को देख लीजिए, ‘लोकतंत्र को बचाने में’ लालू-मुलायम, रामविलास के परिवार के सभी लोग जी-जान से जुटे हुए हैं। नहीं तो लालू, मुलायम, पासवान को यह कैसे लगा कि जब तक उनके परिवार के सदस्य चुनाव नहीं लड़ेंगे, लोकतंत्र नहीं बचेगा! दुखद यह है कि इन नेताओं के लिए सामाजिक न्याय का मतलब है इनका परिवार, इनके रिश्तेदार। और अगर इनमें से किसी के पास परोपकार जैसा शब्द बचा है तो उसका आशय अपनी जाति के मलाईदार तबके तक जाकर खत्म हो जाता है।
अलबत्ता नीतीश परिवारवाद से मुक्त हैं, लेकिन दूरदृष्टि की कमी उनको भी लालू, मुलायम और मायावती की श्रेणी में खड़ा कर देती है। आखिर इन नेताओं को यह बात समझ में क्यों नहीं आई कि सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल का बचना उनके अपने ही मतदाताओं के लिए सबसे जरूरी और उनके सशक्तीकरण का उपाय है। इन लोगों ने दूरदृष्टि के अभाव में अपने मतदाताओं को सबसे ज्यादा छला है और उन्हें नुकसान भी पहुंचाया है।
कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने सातवीं तक की शिक्षा मुफ्त कर दी थी और दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो मैट्रिक तक की। इतना ही नहीं, उन्होंने मैट्रिक परीक्षा में केवल अंगरेजी में फेल होने वाले परीक्षार्थियों को पास करने का नियम बना दिया, जिसे आज भी ‘कर्पूरी डिवीजन’ कहा जाता है। कर्पूरी ठाकुर के इस फैसले से हजारों दलितों और पिछड़ों को नौकरी मिलने का रास्ता साफ हुआ था और वही आज भी लालू-नीतीश के सबसे बड़े समर्थक हैं।
लोकतंत्र में हर पल अपने समाज और मतदाताओं के बारे में सोचते रहना पड़ता है, लेकिन दुखद यह है कि सामाजिक न्याय के ये नेता अपने परिवार और रिश्तेदारों के बारे में ही ज्यादा सोचते हैं। सामाजिक न्याय के इन पुराधाओं को देख कर पता नहीं क्यों बरबस प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ का एक पात्र याद आता है। वह ट्रेन में जाते समय पूछता है: ‘मान लो, सुराज आ जाता है तो क्या होगा? यही न कि मिस्टर जॉन की जगह पर श्रीमान जगदीश आ जाएंगे। लेकिन इससे हमारी जिंदगी में कोई तब्दीली तो नहीं आएगी।’ सामाजिक न्याय की अपेक्षा रखने वाली जनता के लिए फिलहाल वैसा ही ‘सुराज’ है, जिसमें सत्ता-परिवर्तन भले हो जाए, व्यवस्था वही रहेगी।

दवाएं




बेअसर होती दवाएं

28-09-14 

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने देश के तमाम डॉक्टरों से कहा है कि वे आम सर्दी, जुकाम, बुखार के लिए एंटीबायोटिक दवाएं न लिखें। यह एक अच्छा कदम है। यह इसलिए जरूरी है कि काफी पहले हुए एक अध्ययन में यह देखने में आया था कि देश में लगभग 90 प्रतिशत एंटीबायोटिक दवाएं व्यर्थ में ही दी जाती हैं। आम सर्दी, जुकाम या बुखार के लगभग सारे मरीजों को डॉक्टर एंटीबायोटिक जरूर लिख देते हैं, जबकि इन समस्याओं में ये दवाएं किसी भी तरह से कारगर नहीं हैं। यह स्थिति लगभग एंटीबायोटिक दवाओं के आविष्कार के समय से चली आ रही है, लेकिन अब इस पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत इसलिए है कि इस प्रवृत्ति के गंभीर नतीजे सामने आ रहे हैं। सबसे गंभीर नतीजा यह है कि रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर रहे हैं। अब ऐसे बैक्टीरिया अस्तित्व में आ गए हैं, जिन्हें सुपरबग कहा जा रहा है, क्योंकि उन पर किसी भी एंटीबायोटिक का असर नहीं हो रहा है। कुछ ऐसे बैक्टीरिया की उत्पत्ति भारत में ही हुई है। समस्या इतनी विकट हो गई है कि विशेषज्ञ एंटीबायोटिक युग की समाप्ति की चेतावनी दे रहे हैं। और अगर ऐसा हुआ, तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ही खतरे में पड़ जाएगा। बिना असरदार एंटीबायोटिक के कई संक्रामक रोग काबू में नहीं आ सकते और सजर्री तो तकरीबन नामुमकिन हो जाएगी। यह लापरवाही सिर्फ भारत में है, ऐसा नहीं है, लगभग पूरी दुनिया में एंटीबायोटिक का दुरुपयोग होता है। फर्क सिर्फ यह है कि विकसित देशों में कुछ कड़ाई है, इसलिए स्थिति थोड़ी बेहतर है और भारत में किसी भी किस्म का नियंत्रण न होने से डॉक्टर एंटीबायोटिक लापरवाही से लिखते हैं, दवाओं की दुकान वाले या फिर कंपाउंडर या और अप्रशिक्षित व्यक्ति भी धड़ल्ले से बांटते हैं और आम जनता भी अपने मन से इन दवाओं का इस्तेमाल करती है। एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया को मारती हैं, इसलिए तार्किक रूप से इनका इस्तेमाल सिर्फ बैक्टीरिया संक्रमण में होना चाहिए, जबकि हमारे यहां किसी भी बीमारी में ये दी जाती हैं। आम सर्दी, जुकाम या बुखार ज्यादातर वायरस के संक्रमण से होते हैं, इसलिए इन परिस्थितियों में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल रोकना बहुत जरूरी है। पिछले 20 साल में किसी नए एंटीबायोटिक की खोज नहीं हुई है और पुराने एंटीबायोटिक बेअसर होते जा रहे हैं। अगर ऐसा है, तो आखिरकार डॉक्टर एंटीबायोटिक का दुरुपयोग क्यों करते हैं? बुनियादी तौर पर एंटीबायोटिक का इस्तेमाल डॉक्टर और मरीज के रिश्तों में व्यवसायीकरण का नतीजा है। डॉक्टर को लगता है कि अगर वह मरीज से कहे कि उसे किसी हल्की-सी दर्द निवारक दवा या घरेलू उपचार के अलावा किसी चीज की जरूरत नहीं है, तो मरीज उस पर भरोसा नहीं करेगा। डॉक्टर और मरीज एक-दूसरे के संपर्क में नहीं रहते, इसलिए डॉक्टर पहले ही एंटीबायोटिक दे देता है कि अगर भूले-भटके भविष्य में बैक्टीरिया संक्रमण हो जाए, तो उस पर तोहमत न आए। न डॉक्टर को मरीज पर भरोसा होता है, न मरीज भारी-भरकम प्रिस्क्रिप्शन के बिना संतुष्ट होता है। दवा कंपनियों का प्रलोभन भी होता है, जो डॉक्टर को व्यर्थ की दवाएं लिखने के लिए लालच देती रहती हैं। लेकिन इन तमाम वजहों से चिकित्सा व्यवसाय ही खतरे में पड़ गया है। अब वक्त है कि एंटीबायोटिक दवाओं का जितना भी प्रभाव बचा है, उसे बचाकर रखा जाए, क्योंकि हमारे पास बैक्टीरिया को नियंत्रित करने का दूसरा कोई प्रभावशाली तरीका नहीं है। आईएमए को देर से ही होश आया, लेकिन आया तो।