सामाजिक न्याय का तंग दायरा
जितेंद्र कुमार
जनसत्ता 29 सितंबर, 2014: अगस्त 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जिस सामाजिक न्याय का ताना-बाना बुना था, उसके बिखरने में बस चंद वर्ष लगे थे। सबसे पहले उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह जनता दल को तोड़ कर अलग हो गए और मंडल के सबसे अधिक प्रभाव वाले क्षेत्र बिहार में उसके दो प्रतापी नेताओं लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की जोड़ी चार साल बाद ही टूट गई थी। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही वक्त ने एक बार फिर करवट बदली और दोनों पिछड़े नेता ठीक चौबीस साल बाद अगस्त महीने में ही एकजुट होकर मंच पर विराजमान हुए। नतीजा असरकारी था- राज्य की दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव में छह सीटों पर इस जोड़ी ने जीत दर्ज की। चुनाव परिणाम से पहले दोनों नेताओं ने यह दोहराया कि अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव वे मिल कर लड़ेंगे।
जब 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी तो उसके कुछ समय बाद इससे भी बड़ी गोलबंदी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच हुई थी। वह गोलबंदी इतनी कारगर साबित हुई कि दोनों दलों ने मिल कर न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को हाशिये पर धकेल दिया था, बल्कि मुलायम सिंह यादव दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री भी बने थे। लेकिन अहं के टकराव और दूरदृष्टि की कमी’ की वजह से वह सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई और भाजपा फिर से सत्ता में लौट आई। उत्तर प्रदेश में फिर से सपा की सरकार है और बसपा विपक्षी पार्टी है, लेकिन मोदी का डर इतना सता रहा है कि सामाजिक न्याय खेमे के सभी सूरमा एक नए गठबंधन की जरूरत पर जोर देने लगे हैं।
पर कुछ सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं से पूछना लाजिमी हो जाता है। थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि राजद-जनता दल (एकी) गठबंधन को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो राज्य की जनता, खासकर उनके मतदाताओं को इससे क्या फायदा होगा? आखिर मंडल-दो की जुगलबंदी गरीबी, बेरोजगारी और जाति-व्यवस्था से पीड़ित अवाम के लिए कुछ लेकर भी आएगी? उनकी राजनीति से समाज इतना प्रभावित हुआ है कि आने वाले कई वर्षों तक बिहार और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी सवर्ण को मिलेगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन सामाजिक न्याय के अगुआओं ने सत्ता का दुरुपयोग जिस रूप में किया है उससे लगने लगा है कि सामाजिक न्याय का मतलब सिर्फ नेताओं, उनके बाल-बच्चों और रिश्तेदारों की सत्ता और प्रतिष्ठान में भागीदारी और राजकीय खजाने की लूट में हिस्सेदारी ही रह गया है।
बिहार और उत्तर प्रदेश में लगभग ढाई दशक से ‘सामाजिक न्याय’ की सरकारें रही हैं जिनका नेतृत्व पूरी तरह पिछड़ों और दलितों के हाथ में ही रहा है, भले ही किसी भी पार्टी की सरकार हो (उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के छोटे-से कार्यकाल को छोड़ दिया जाए तो)। बिहार में लालू-राबड़ी लगभग पंद्रह वर्षों तक सत्ता में रहे, जबकि पिछले नौ वर्षों से नीतीश कुमार वहां काबिज रहे हैं (लोकसभा चुनाव में भीषण पराजय के बाद नीतीश ने दलित समुदाय से आने वाले जीतन राम मांझी को राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया है)। जिन जातियों और सामाजिक गठबंधन के वोट से लालू-राबड़ी मुख्यमंत्री बने, वे मुख्य रूप से पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से आते थे। उनके पास न शिक्षा थी, न रोजगार था और न ही संसाधन थे। हां, जाति-व्यवस्था से बदहाली इतनी अधिक थी कि वे उस सामाजिक ताने-बाने में ठीक से सांस भी नहीं ले पाते थे।
लालू प्रसाद यादव ने 1990 में सत्ता संभालने के बाद सबसे बड़ी चुनौती उसी जाति-व्यवस्था को दी, जिससे दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक त्रस्त थे। कुछ सीमित अर्थों में कहा जाए तो उन्होंने सामाजिक जड़ता को जबर्दस्त झटका दिया था। अपने पंद्रह साल के शासनकाल में उन्होंने सांप्रदायिक ताकतों से जमकर लोहा लिया, जिसके चलते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कई कोशिशों के बावजूद राज्य में सांप्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं घटी। पर इसके अलावा लालू-राबड़ी के शासन में ऐसा कोई खास काम नहीं हुआ जिससे उनके मतदाता वर्ग को सामाजिक और आर्थिक लाभ पहुंचे।
हालांकि नीतीश कुमार का सामाजिक आधार बिल्कुल वही नहीं था जो लालू का था, लेकिन उनको मुख्यमंत्री बनाने में अति पिछड़ों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। नीतीश को सत्तासीन करने वाले समुदाय भी शैक्षिक सुविधाओं की कमी, बेरोजगारी और गरीबी से जूझ रहे थे। उनके लिए नए सोच के साथ न स्कूल खुले, न ही उन सरकारी स्कूलों को बचाने की कोशिश हुई जिनकीबदौलत वे भविष्य में बेहतर रोजगार पा सकते थे। इसके अलावा किसी नई योजना के तहत उनके लिए शिक्षा के अवसर भी नहीं मुहैया कराए गए। कुल मिलाकर बदहाल होती जा रही शिक्षा-व्यवस्था और भी बदहाल होती गई। यही हाल स्वास्थ्य के क्षेत्र में रहा। सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर अस्पताल में इलाज न करके उसी अहाते में अपने आवास पर निजी क्लीनिक चलाने लगे। स्वास्थ्य और शिक्षा, इन दोनों क्षेत्रों की हालत देख कर धनाढ्य और नवधनाढ्य लोगों ने इनमें सबसे ज्यादा पूंजी निवेश किया। अगर आकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले पच्चीस वर्षों में बिहार और उत्तर प्रदेश में सरकारी अस्पतालों और सरकारी स्कूलों से ज्यादा निजी अस्पताल और स्कूल खुले हैं।
सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं को प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहले स्कूलों और अस्पतालों को बचाना था, क्योंकि यही दोनों संस्थाएं हैं जिनसे दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों, अल्पसंख्यकों समेत सभी गरीबों का भविष्य संवरता है। लेकिन उन नेताओं की प्राथमिकता में ये दोनोें चीजें दूर-दूर तक नहीं रही हैं। सामाजिक न्याय के इन कर्णधारों की सबसे बड़ी परेशानी यह भी है कि वे हमेशा सवर्ण सत्ताधारी नेताओं की आंख मूंदकर नकल करते हैं। चूंकि सामाजिक न्याय से इतर के नेतृत्व ने सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों के समांतर निजी स्कूलों और अस्पतालों का जाल खड़ा कर दिया है और जिसका लाभ कोई भी संपन्न ले सकता है, इसलिए उनके लिए अब इन सरकारी संस्थानों का कोई मायने ही नहीं रह गया है। लेकिन जिन वर्गों या जातियों का प्रतिनिधित्व सामाजिक न्याय के नेतागण करते हैं उनके लिए तो सरकारी संस्थानों के अलावा दूसरा कोई रास्ता ही अभी तक तैयार नहीं हुआ है।
पिछले पच्चीस वर्षों के कृषि विकास को देखें तो आप पाएंगे कि कहीं-कहीं पैदावार में बढ़ोतरी जरूर हुई है, लेकिन अधिकतर किसान खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। खेती के घाटे का धंधा बनते जाने के कारण खेती पर निर्भर रहने वाले लोगों को अब रोजगार की तलाश में पहले से अधिक बाहर पलायन करना पड़ रहा है। मंडल-दो के दोनों महारथियों ने कभी भी अपने मतदाता वर्ग को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मसलों से जोड़ने का काम नहीं किया। फलस्वरूप जो मतदाता उनको वोट देते रहे, उनकी जिंदगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं आया।
जब लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया तो पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने बिना किसी का नाम लिए कहा था- ‘लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा परिवारवाद है, क्योंकि जब लगता है कि लोकतंत्र ठीक से चल रहा है तो तंत्र पर परिवार का कोई सदस्य आकर बैठ जाता है और लोकतंत्र कमजोर हो जाता है।’ शायद वीपी सिंह के कथन के पीछे उस समय की वही घटना रही होगी। सामाजिक न्याय के योद्धा येन केन प्रकारेण अपने राजनीति में अपने परिवार को स्थािपत करने में ही जुटे रहे हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार के सामाजिक न्याय के नेताओं को देख लीजिए, ‘लोकतंत्र को बचाने में’ लालू-मुलायम, रामविलास के परिवार के सभी लोग जी-जान से जुटे हुए हैं। नहीं तो लालू, मुलायम, पासवान को यह कैसे लगा कि जब तक उनके परिवार के सदस्य चुनाव नहीं लड़ेंगे, लोकतंत्र नहीं बचेगा! दुखद यह है कि इन नेताओं के लिए सामाजिक न्याय का मतलब है इनका परिवार, इनके रिश्तेदार। और अगर इनमें से किसी के पास परोपकार जैसा शब्द बचा है तो उसका आशय अपनी जाति के मलाईदार तबके तक जाकर खत्म हो जाता है।
अलबत्ता नीतीश परिवारवाद से मुक्त हैं, लेकिन दूरदृष्टि की कमी उनको भी लालू, मुलायम और मायावती की श्रेणी में खड़ा कर देती है। आखिर इन नेताओं को यह बात समझ में क्यों नहीं आई कि सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल का बचना उनके अपने ही मतदाताओं के लिए सबसे जरूरी और उनके सशक्तीकरण का उपाय है। इन लोगों ने दूरदृष्टि के अभाव में अपने मतदाताओं को सबसे ज्यादा छला है और उन्हें नुकसान भी पहुंचाया है।
कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने सातवीं तक की शिक्षा मुफ्त कर दी थी और दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो मैट्रिक तक की। इतना ही नहीं, उन्होंने मैट्रिक परीक्षा में केवल अंगरेजी में फेल होने वाले परीक्षार्थियों को पास करने का नियम बना दिया, जिसे आज भी ‘कर्पूरी डिवीजन’ कहा जाता है। कर्पूरी ठाकुर के इस फैसले से हजारों दलितों और पिछड़ों को नौकरी मिलने का रास्ता साफ हुआ था और वही आज भी लालू-नीतीश के सबसे बड़े समर्थक हैं।
लोकतंत्र में हर पल अपने समाज और मतदाताओं के बारे में सोचते रहना पड़ता है, लेकिन दुखद यह है कि सामाजिक न्याय के ये नेता अपने परिवार और रिश्तेदारों के बारे में ही ज्यादा सोचते हैं। सामाजिक न्याय के इन पुराधाओं को देख कर पता नहीं क्यों बरबस प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ का एक पात्र याद आता है। वह ट्रेन में जाते समय पूछता है: ‘मान लो, सुराज आ जाता है तो क्या होगा? यही न कि मिस्टर जॉन की जगह पर श्रीमान जगदीश आ जाएंगे। लेकिन इससे हमारी जिंदगी में कोई तब्दीली तो नहीं आएगी।’ सामाजिक न्याय की अपेक्षा रखने वाली जनता के लिए फिलहाल वैसा ही ‘सुराज’ है, जिसमें सत्ता-परिवर्तन भले हो जाए, व्यवस्था वही रहेगी।
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