Monday 27 October 2014

मानसिक स्वास्थ्य




मानसिक स्वास्थ्य बड़ी चुनौती

मुद्दा
 मोनिका शर्मा
केंद्र सरकार ने हाल में पहली बार मानसिक रोगियों के लिए एक नीति की घोषणा की है। आज के समय में इसकी अत्यधिक आवश्यकता है भी। क्योंकि हमारे यहां इस समस्या के लिए स्वास्थ्य बजट का के नाम पर नाममात्र का हिस्सा खर्च किया जाता है। जबकि हालात अत्यधिक चिंतनीय हैं। आबादी के हिसाब से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। ऐसे में जो मानवीय संसाधन भारत के लिए शक्ति और उत्पादन का स्रेत हो सकते थे, वे बोझ बन रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण है भारत जैसे विकासशील देश में मनोरोगियों की बढ़ती संख्या। आज दुनियाभर में 45 करोड़ से भी अधिक लोग मानसिक रोग से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2020 तक अवसाद विश्व में दूसरा सबसे बड़ा रोग होगा। हालात यह हो जाएंगे कि इतनी संख्या में बढ़े मानसिक रोगियों का उपचार विकासशील ही नहीं, विकसित देशों की भी क्षमताओं से परे होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एकत्रित किये गये आंकड़ों के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की वजह से पड़ने वाले भार और इसकी रोकथाम एवं इलाज के लिए उपलब्ध संसाधनों के बीच एक बड़ी खाई है। ऐसे में मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या भारत ही नहीं, नियंतण्र स्तर पर भी चिंता का बड़ा विषय है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हैल्थ एंड न्यूरो साइंसेज के अनुसार भारत में आज दो करोड़ से अधिक लोग गंभीर मेंटल डिसऑर्डर के शिकार हैं। इतना ही नहीं, पांच करोड़ भारतीय ऐसी मानसिक अस्वस्थता से जूझ रहे हैं जो गंभीर तो नहीं पर आने वाले समय में भयावह रूप ले लेगी। ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या है जिन्हें अस्पताल में भर्ती करने और पर्याप्त देखभाल और इलाज मुहैया करवाने की आवश्यकता है। भारत में 35 लाख से भी ज्यादा मानसिक रोगी ऐसे हैं जिन्हें तत्काल स्तरीय उपचार और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है। रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकायट्री एंड एप्लायड साइंसेज के आंकड़े बताते हैं कि मानसिक बीमारियों का इलाज करवाने वालों में 30 फीसद युवा हैं। बेहतर रोजगार पाने और अति महत्वाकांक्षा के चलते युवा पहले तनाव फिर अवसाद और अंतत मनोरोगों की चपेट में आ रहे हैं। कई तरह के व्यसनों से घिर जाने और अनियमित जीवनशैली अपनाने के कारण भी युवा मानसिक रोगों का शिकार बन रहे हैं। भारत में बढ़ रहे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मामले इसलिए भी अहम हैं क्योंकि ये हमारे पूरे सामजिक, आर्थिक और पारिवारिक ढांचे को प्रभावित कर रहे हैं। मनोरागियों के बढ़ते आंकड़े एक बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। मनोरोगियों की बढ़ती संख्या न केवल आर्थिक रूप से समस्या बनती है बल्कि सामाजिक स्तर पर विखंडन और असमानता का वातावरण भी बनाती है। कई बार अवसाद और मानसिक रोग से पीड़ित लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति भी देखने मिलती है। आज के दौर में जीवनशैली जनित मानसिक तनाव मेंटल डिसऑर्डर के बढ़ते मामलों की अहम वजह है। पारिवारिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और सामाजिक असुरक्षा जैसे मसलों के चलते देखने में यह भी आ रहा है कि भारत में पुरु षों से ज्यादा महिलाएं मानसिक रोगों की शिकार बन रही हैं। गौरतलब है कि महिलाएं भावनात्मक स्तर घर और बाहर दोनों ही जगह अनिगनत परेशानियों से जूझती हैं। 2012 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार तकरीबन 57 फीसद महिलाएं मानसिक विकारों की शिकार बनी थीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर 5 में से 1 महिला और हर 12 में से 1 पुरु ष मानसिक व्याधि का शिकार हैं। कुल मिलाकर हमारे यहां लगभग 50 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में मानसिक विकार से जूझ रहे हैं। इनमें से 85 फीसद गंभीर मानसिक रोग वाले मरीज उचित इलाज और देखभाल से वंचित हैं। सामान्य मानसिक विकार के मामले में तो यह आंकड़ा और भी भयावह है। गौरतबल है कि सन 1982 में भारत में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरूआत की गई। इसका उद्देश्य जनमानस में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाना था। 1987 में मेंटल हैल्थ एक्ट बना जो मनोरोगों से संबंधित कानून है। बावजूद इसके आज तक हमारे यहां मानसिक रोगों के इलाज के लिए उपलब्ध सेवाओं और मनोचिकित्सकों की भारी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की संस्था मेंटल हैल्थ एटलस की 2011 रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सरकार स्वास्थ्य बजट का केवल 0.06 प्रतिशत ही मेंटल हैल्थ के लिए खर्च करती है। अमेरिका में यह 6.20 प्रतिशत और इंग्लैंड में 10.28 फीसद है। मानसिक रोगियों को सामाजिक रूप से भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। शिक्षा, रोजगार और शादी ब्याह के साथ ही मनोरोगियों की सामाजिक स्वीकार्यता भी एक बड़ा प्रश्न है। उन्हें हर स्तर पर भेदभाव का दंश झेलना होता है। मानसिक बीमारियों के चलते अन्य सामाजिक समस्याएं भी उनके असहाय जीवन को घेर लेती हैं। जैसे परिवारों का टूटना, बेरोजगारी और व्यसनों को बढ़ावा। ये सारी बातें अंतत: समाज की पूरी रूपरेखा पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। मनोरोग से अंधविास की सोच को भी बढ़ावा मिलता है। परिवार के किसी सदस्य के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने पर आज भी लोग आधुनिक इलाज के बजाय झाड़फूंक के अंधविासी टोटकों में फंस जाते हैं। इस कारण मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों का शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न तो होता ही है, उन्हें आर्थिक स्तर पर भी कई तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है। मनोरोगियों से जमीन जायदाद छीन लेना और प्रापर्टी से बेदखल कर घर से निकाल देने के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं। यह विडम्बना ही है कि मानसिक बीमारियों से ग्रसित मरीजों को अपनों का भी साथ और संवेदना नहीं मिलती। जरूरी है कि समय रहते इस भयावह तकलीफ की पदचाप सुन ली जाए। आज के दौर की जीवनशैली से उपजती तनाव और अवसाद जैसी समस्याओं के कारण लगातार मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ रही है। आमजन में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सजगता लाने का प्रयत्न किया जाए। सामाजिक कल्याण से जुड़ी नीतियों और योजनाओं में मानसिक रोगियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी पहलुओं को भी शामिल किया जाना समय की जरूरत है।

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