Monday 27 October 2014




राजनीति का विज्ञापन

जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2014: सरकारी विज्ञापनों के पीछे बहुत बार राजनीतिक हित साधने की मंशा नजर आती है। अलबत्ता कुछ विज्ञापन जरूरी कहे जा सकते हैं। मसलन, किसी अहम मसले पर जरूरी जानकारी देने या जन-जागरूकता फैलाने के मकसद से दिए जाने वाले विज्ञापन। एड्स से बचाव और सड़क दुर्घटनाएं रोकने के एहतियाती उपाय बताने वाले विज्ञापनों को इसके उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। इन पर शायद ही किसी को एतराज रहा हो। पर कई बार सरकारें ऐसे विज्ञापन जारी करती हैं, जो केवल सत्तारूढ़ दल को रास आते हैं। सत्ताधारी पार्टी के किसी दिवंगत नेता के जन्मदिन या पुण्यतिथि के अवसर पर या सरकारी योजनाओं और उपलब्धियों का बखान करने वाले विज्ञापन इसी तरह के होते हैं। विचित्र यह है कि इनमें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के साथ कई मंत्रियों, यहां तक कि सत्तारूढ़ पार्टी के दूसरे नेताओं के भी फोटो नजर आ जाते हैं।
ऐसे विज्ञापनों को सियासी प्रचार की शक्ल देने के इरादे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनाव नजदीक हों, तो इनके प्रकाशन और प्रसारण में तेजी आ जाती है। इसे सार्वजनिक पैसे का दुरुपयोग मानते हुए स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज और सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में मांग की गई थी कि सरकारी विज्ञापनों की बाबत दिशा-निर्देश तय किए जाएं। न्यायालय ने इसे विचार-योग्य माना और उसने करीब छह महीने पहले इस बाबत एक समिति गठित की।
शिक्षाविद एनआर माधव मेनन की अध्यक्षता में गठित की गई इस तीन सदस्यीय समिति ने सर्वोच्च अदालत को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कई अहम सिफारिशें की हैं। उसने ऐसे विज्ञापनों को राजनीति से दूर रखने के मकसद से सिर्फ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के नाम और तस्वीरें प्रकाशित करने पर जोर दिया है। निर्वाचन आयोग की आचार संहिता चुनाव की घोषणा के साथ लागू होती है। पर यह आम अनुभव रहा है कि चुनाव की घोषणा से पहले कुछ महीने तक ऐसे विज्ञापन आए दिन नमूदार होते हैं, जिनमें संबंधित सरकार की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटा गया होता है। जाहिर है, इसका मकसद मतदाताओं को सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में प्रभावित करना होता है। यह जनता के पैसे की बरबादी तो है ही, विपक्ष के प्रति नाइंसाफी भी है, क्योंकि यह समान अवसर के सिद्धांत से मेल नहीं खाता। इसलिए निर्वाचन आयोग ने सुझाया था कि चुनाव से छह माह पहले से ऐसे विज्ञापनों पर पाबंदी रहनी चाहिए। मेनन समिति ने आयोग के इस सुझाव का समर्थन किया है।
विज्ञापनों के अलावा सरकारें दूसरे तरीके भी आजमाती रही हैं। स्कूली बस्ते, राशन कार्ड से लेकर एंबुलेंस तक को वे अपने प्रचार का जरिया बनाने से नहीं चूकतीं। जब इस पर एतराज जताया जाता है तो सफाई दी जाती है कि लोगों के लिए सरकारी योजनाओं के बारे में जानना जरूरी है। मगर चुनाव से ऐन पहले इस पर खासा जोर क्यों रहता है? अगर लोगों को वास्तव में इन योजनाओं का लाभ मिल रहा है, तो उन्हें अलग से उपलब्धियां बताने की जरूरत क्यों होनी चाहिए? समिति ने यह भी कहा है कि अगर किसी महापुरुष की जयंती या पुण्यतिथि पर विज्ञापन जारी करना जरूरी लगे, तो एक ही विज्ञापन जारी किया जाए, न कि विभिन्न मंत्रालय अलग-अलग विज्ञापन जारी करें। मंत्रालयों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को विज्ञापन के मद में चाहे जितनी राशि खर्च करने की छूट न हो, एक निश्चित रकम आबंटित की जाए और उसके उपयोग की जांच नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक से कराई जाए। ये सुझाव स्वागत-योग्य हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये विधिवत दिशा-निर्देश का रूप ले सकेंगे।

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