Monday 27 October 2014

स्वतंत्रता का व्यापक अर्थ




स्वतंत्रता का व्यापक अर्थ

दष्टि

पूरे विश्व में आज जिस तरह का वैचारिक व राजनीतिक संकट है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वास्तव में यह स्वतंत्रता का संकट है या स्वायत्तता का संकट है। पुराने ढांचे में जकड़ी व्यवस्थाओं में मनुष्य घिर गया है। उसे नया रास्ता चाहिए। वह न सिर्फ भौतिक व राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होना चाहता है, अपितु सांस्कृतिक व वैचारिक रूप से भी एक नए रास्ते की खोज में है। सारे पुराने ढांचे व्यर्थ हैं, ऐसा कहना उचित नहीं, किन्तु नए समय को प्रतिबिंबित करते हुए नई विचार सरणी में पुरानी चीजें समा नहीं पा रहीं। ये सारे प्रश्न कला, कला-इतिहास, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीतिक सिद्धांत, सांस्कृतिक आलोचना आदि सबमें उपस्थित होते हैं। कला, संस्कृति, पत्रकारिता आदि में बिल्कुल नए कोणों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात हो रही है। उल्टे, कला व साहित्य के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है कि समाज में उनकी स्थिति गौण होती गई है या उपेक्षापूर्ण। जो व्यावसायिकता में संगी-साथी हैं, वे ही ध्यान देने योग्य रह गए हैं। उदाहरण के लिए सिनेमा। सिनेमा जब तक बिक्री का साधन बना रहेगा, उसका मुख्य धारा में अर्थ है। जब वह सोचने व बदलाव का तर्क बनेगा, खलने लगेगा। बाजार ने स्वतंत्रता व स्वायत्तता के अर्थ ही बदल दिए हैं। पर्व-त्योहार की खुशियों को व्यावसायिक आधार देते हुए स्वतंत्रता की सांस्कृतिकता के स्वरूप भिन्न दिखाई देते हैं। किसी राष्ट्र को स्वतंत्र घोषित कर देने मात्र से उसकी वास्तविक स्वतंत्रता का अवबोध नहीं होता। यदि लोकतंत्री स्वरूप भी वहां हो तो भी लोकतंत्र के नाम पर परिवारवाद का पोषण चल रहा है, ताकतवर को और भी ताकत मिलती जा रही है, निर्धन और गरीब होता जा रहा है। इस छद्मी लोकतंत्री समाज में राजनीति ही सबका हेतु बन गई है। क्या यह उचित है कि संस्कृतिविहीन और विचारहीन राजनीति हमारे सारे व्यवहार के केंद्र में हो जाए? राजनीतिक संवर्ग यदि स्वाधीनता को सिर्फ राजनीति की ऊपरी सतह तक रखना चाहता है तो देश का क्या होगा? स्वतंत्रता व स्वायत्तता को व्यापक बनाए जाने की जरूरत है, जहां शब्द, श्रम, कल्पना व विवेक की जगह हो। यदि समाज को व्यापकता और राष्ट्र को स्वाधीनता चाहिए तो व्यक्ति की भी संप्रभुता होनी चाहिए। स्वतंत्रता का वृहत अर्थ है- सहिष्णु होना। क्या हम एक सहिष्णु समाज बन पाए हैं जिसमें सांस्कृतिक स्वतंत्रता, धार्मिक उदारता, भाषाई समंजन, वर्गीय विभेदों से मुक्ति के लिए केंद्र में जगह हो? स्वतंत्रता का अर्थ है- ऐसी संस्कृति की प्रतिष्ठा, जिसमें सबके लिए जगह हो। जिसमें दूसरों के लिए इज्जत हो। मनुष्य की सवरेत्तम गरिमा ही स्वतंत्रता है। केवल राजनीतिक स्वाधीनता पर जो समाज बल देते हैं, वहां व्यक्ति की आत्मा बलवती नहीं हो सकती। यदि समाज का कोई भी व्यक्ति, चाहे वह जिस रूप रंग, भाषा, संप्रदाय, क्षेत्र का हो, अपने अनुसार जीवन नहीं जी सकता तो वृहत अर्थो में इसे स्वतंत्रता नहीं कह सकते। यदि समाजों में इस कदर बंटवारा हो कि एक को लांछित व उपेक्षित जीवन जीने को विवश होना पड़े तो यह स्वतंत्रता नहीं। यानी वास्तविक स्वतंत्रता चाहिए। स्वतंत्रता बोझ न साबित हो। जब आजादी बोझ बनती है तो अकेलापन नियति बन जाता है, दहशत मनस्थिति व एब्सर्डिटी हमारी सोच। स्वतंत्रता का अर्थ है, इतिहास में हमारी वास्तविक व सम्मानजनक उपस्थिति। जो इतिहास हमारा स्थान ही नहीं दे सकता, वहां स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। आज एक तरफ बाहर से भूमंडलीकरण राष्ट्र-राज्यों का अतिक्रमण कर रहा है, तो दूसरी तरफ भीतर से क्षेत्रीय स्वायत्तता के मुक्ति आंदोलन इसकी मूल संरचना को चुनौती दे रहे हैं। दलित-दमित व सीमांत समूह राष्ट्रीयता की अवधारणा को अलग तरह से परिभाषित कर रहे हैं। नवाचारों को जगह मिलना ही स्वतंत्रता है। जिन संस्कृतियों में नए आचार शामिल होते रहते हैं वही विकास के रास्ते में पग बढ़ाती कही जा सकती हैं। भेद-विभेद होना किसी भी लोकतांत्रिक समाज की संरचना में शामिल होना माना जा सकता है। यह बहुत अधिक व विभाजनकारी न हो तथा विभेदों की फंटास को बढ़ाया नहीं जाना चाहिए। वास्तव में इन सिद्धांतों व प्रश्नों में हमारी स्वतंत्रता के बीज छिपे हैं। कारण यह है कि स्वतंत्रता की संस्कृति का यथार्थबोध लगातार बदलता गया है। हमारा हर्ष, हमारी स्मृतियां, हमारी इच्छाएं तथा निजी पहचान का अहसास स्वतंत्रता के विविध कोणों को स्पर्श करते हैं। इससे जो यथार्थ पैदा होता है, उसमें मानव-गरिमा, इच्छा-स्वातंत्र्य, अस्मिता, एहसास, चिंतन-बोध, चेतना, बुद्धि, दृष्टि और मानव अधिकारों के समकालीन अर्थ खुलते हैं। यदि स्वतंत्रता में हमारी खोई हुई जगह न मिले तो इसका अर्थ क्या है? इसमें हमारा विकल्प- स्वातंत्र्य बहाल होना चाहिए। यदि मूल्यांकन करें तो पता चलेगा कि अधिकांश राजनीतिक लड़ाइयां दो संस्कृतियों के संघर्ष को प्रतिबिंबित करती हैं। आजादी की संस्कृति में नागरिक स्वयं का जीवन अपनी इच्छा व विवेक के अनुसार चला सकते हैं तथा अपने लक्ष्यों व खुशियों को पा सकते हैं। जो व्यवस्था अपने भीतर के उठते आक्रोश को समझ नहीं पाती, वह अपनी प्रासंगिकता खोने लगती है। स्वतंत्रता का परिसर ऐसा हो, जिसमें अन्याय का प्रतिरोध हो, परिधि की संस्कृतियों का सम्मान हो। सभ्यताओं के टकराव के बदले उनका समंजन होना स्वाधीनता के लिए मूल्यवान है। सभ्यताओं में संवाद होना चाहिए। अत: सांस्कृतिक समस्याएं वर्चस्ववादी भूमिका में न हों। स्वतंत्रता को स्वच्छंदता का पर्याय न मानें। विकेंद्रीयताएं, स्थानीयताएं अपनी सम्मानजनक जगह हासिल करें। बहुलता के लिए स्पेस बना रहे तथा अस्मिता व आत्मनिर्णय को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। यदि इनका संकुचित अर्थ लिया गया तो स्वतंत्रता एक राजनीतिक हथियार होकर रह जाएगी, जहां व्यापक सांस्कृतिक मूल्यों की अनदेखी होगी। दमनकारी व्यवस्था के विरुद्ध ‘सबके लिए जगह’ की कोशिश वास्तविक स्वतंत्रता देगी। बाजार व पूंजी का संतुलित उपयोग हो, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मनुष्य के मूल्य इनकी दासता के लिए नहीं हैं। यांत्रिकता पूरी तरह हमें गिरफ्त में न ले ले। हममें कल्पना व स्वप्न की उड़ान व स्वतंत्रता बची रहे। यदि हिंसा बढ़ी तो स्वाधीनता पर आंच आएगी। हिंसा की अतिवृद्धि सभ्य समाज का लक्षण नहीं। स्वाधीनता को गरिमापूर्ण बनाए रखने के लिए मनुष्य की गरिमा की बहाली जरूरी है। 

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